ना तो ये मर्दानी लड़ाका हैं, ना लेडी विराट कोहली। अब शब्दावली बदलने का वक़्त आ गया है…
ये सोच वैसी बिल्कुल नहीं है जो ऋषि कपूर की तरह ट्वीट करे कि सौरभ गांगुली जैसे सेलिब्रेशन होने वाला है या नहीं। ये वो सोच है जिस हज़ारों सालों से धूल जमी है, जिससे साफ़ दिखना बंद हो जाता है, आसपास के माहौल में ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि हमारी धारणाएं कितनी पुरातन हैं और उन्हें झाड़ने पोछने का वक़्त आ गया है, बदलने का वक़्त आ गया है।
आज ख़बर ऐंकर करते हुए जब सामने स्कोर कार्ड आया तो मुँह से अंग्रेज़ी शब्द निकल गया और फिर मैं सोच में पड़ गया कि क्या मेरी इस्तेमाल की गई शब्दावली ग़लत तो नहीं। दरअसल टीम इंडिया जब विश्व कप जीतते-जीतते हार गई तब मैं एंकरिंग करने स्टूडियो में ही था। उसी दौरान महिला बल्लेबाज़ों के प्रदर्शन का लेखाजोखा देना था। और मेरी सोच लटपटा गई थी बैट्समैन पर। मन में सवाल उठा कि कहीं कोई नई शब्दावली तो नहीं आ गई है । जैसे कुछ साल पहले चेयरमैन की जगह हम चेयरपर्सन इस्तेमाल करने लगे। ये दुविधा इसलिए थी क्योंकि मैंने वर्ल्ड कप के दौरान मैचों की कांमेट्री ढंग से सुनी नहीं है। और जब सुना भी था तो ये समझ नहीं आया कि बैट्समैन की जगह कोई नया नाम आया कि नहीं। और इस सोच ने कई सोचों के चेन रिएक्शन को शुरु कर दिया।
सबसे पहले तो ये कि नए नाम क्या हो सकते हैं, बल्लेबाज़ के लिए बल्लेबाज़िन, बैट्सवुमन। विकेटकीपरनी ? गेंदबाज़िन ? फ़ेसबुक पर ये सवाल डाला तो लोगों ने और भी क्रिएटिव जवाब भेजे। जैसे वुमन ऑफ़ द मैच और अंपायरनी । और लगा कि ये सिलसिला लंबा चलेगा। होना भी चाहिए क्योंकि इस साल के महिला विश्व कप पर लोगों का
जितना ध्यान गया उतना पहले कभी नहीं गया था। पिछली बार 2005 में टीम फ़ाइनल में गई थी। तब भी कैप्टन मिताली राज ही थीं। मैं भी उस वक़्त न्यूज़ चैनल में ही था। उस टूर्नामेंट को लेकर मुझे तो कुछ याद नहीं आता कि इस क़दर उत्सुकता थी।
मेरे लिए इस बार का टूर्नामेंट शुरू हुआ मिताली राज के बयान के साथ। एक जवाब में इस खिलाड़ी ने हमारी सोच को ऐसा उघाड़ा कि हम सब चौंक गए। रिपोर्टर ने मिताली राज से सवाल पूछा कि अापके फ़ेवरेट पुरुष क्रिकेटर कौन हैं ? इस पर मिताली राज ने पलटकर प्रश्न किया कि क्या आप पुरुष क्रिकटरों से भी ये सवाल पूछते हैं ? इस सीधे से जवाबी-सवाल ने काफ़ी तारीफ़ तो बटोरी ही, साथ में हम सबके भीतर के मर्दवादी सोच को आईना दिखाया। महिला खिलाड़ियों से इंटरव्यू से अब एक सामान्य आदतन उम्मीद हो गई है कि ऐसे ही किसी मेल खिलाड़ी या फ़िल्म स्टार के बारे में सवाल पूछा जाएगा और खिलाड़ी लजाते-सकुचाते हुए कुछ जवाब देंगी और वही हेडलाइन बन जाएगा, साउंडबाइट बन जाएगा। एक ऐसे भाव का शक होता है जो कहता है कि इतने सालों से इतनी मेहनत करने वाली खिलाड़ियों की पूरी कोशिश बाईदीवे ही है, जिनका असल प्रारब्ध सुल्तान की अनुष्का शर्मा हो जाना है। मैंने मिताली राज की ख़बर सर्च करने के लिए गूगल पर टाइप किया तो सबसे पहला सर्च जो ट्रेंड कर रहा था वो था मिताली राज हसबेंड। सबसे पहले उनके पति की खोज की गई है। यही आमतौर पर होता है अवचेतन यानि सबकांशस लेवल पर इतनी आदत और अहमियत है महिला की पहचान, वजूद को पास के मेल फिगर से जोड़ कर देखना कि इस सर्च से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। सानिया मिर्ज़ा के मामले में देख चुके हैं हम कि कैसे सानिया की उपलब्धियों से ज़्यादा उनके पति का ज़िक्र किया जाता है। मेरी क्रिकेट में जानकारी बहुत नहीं है पर इतना तो लगता है कि शोएब मलिक के इतने बड़े खिलाड़ी तो नहीं कि सानिया के ज़िक्र से पहले मलिक की चर्चा हो। इसमें भले ही भारत-पाकिस्तान का एंगिल कम और मर्दवादी सोच का ऐंगिल ज़्यादा लगता है। वहीं मिताली राज की तुलना करनी थी तो लेडी विराट के नाम से कई गई।
मैं ये सब इसलिए नहीं लिख रहा क्योंकि मुझे लगता है कि मैं इस सोच से मुक्त हूँ। मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं स्वीकारता हूँ कि सूक्ष्म स्तर पर मर्दवादी सोच कैसे कैसे छुप कर बैठी हुई हममें। क्योंकि प्रभावित होने और ख़ुश होने से पहले मैं भी चौंका था मिताली राज के जवाब से। मिताली राज ने मुझ जैसों को भी झकझोरा था। उनके जवाब ने ख़ुद से सवाल करने पर मजबूर किया कि क्या मैं भी इससे पहले तक, तमाम रिपोर्टरों के ऐसे सवालों को स्वीकार नहीं करता रहा हूँ। फोगट बहनों के साथ कपिल शर्मा के शो का कुछ हिस्सा देखकर मैं भी तो हंसा था। विराट के प्रदर्शन पर अनुष्का पर बने चुटकुले भेजने वाले को मैंने भी नहीं रोका था। देश के लिए मेडल जीतने वालियों के संघर्ष की कहानी की बजाय उनके फ़ेवरेट बॉलीवुड हीरो की ख़बर पर क्लिक करने से पहले मैंने भी हिचका नहीं था। और मैं अकेला नहीं जिन्हें रोज़ अपनी सोच को बदलने के सिलसिले को शुरू करना होगा। ये सोच वैसी बिल्कुल नहीं है जो ऋषि कपूर की तरह ट्वीट करे कि सौरभ गांगुली जैसे सेलिब्रेशन होने वाला है या नहीं। ये वो सोच है जिस हज़ारों सालों से धूल जमी है, जिससे साफ़ दिखना बंद हो जाता है, आसपास के माहौल में ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि हमारी धारणाएं कितनी पुरातन हैं और उन्हें झाड़ने पोछने का वक़्त आ गया है, बदलने का वक़्त आ गया है।क्योंकि भविष्य बेटर हाफ़ या देवी जैसे जुमलों और नारेबाज़ी का नहीं है। भविष्य असल बराबरी का है, सोच में बराबरी का है और भविष्य महिलाओं का ही है। केवल खिलाड़ी नहीं। घरों में, बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टरों में, अस्पतालों में, राजनीति में। वैसे भी पुरुषों ने दुनिया चला कर क्या दुर्गति की है वो तो रोज़ दिखता ही रहता है।
तो हार गए पर दिल जीता जैसे पंचलाइन जब थोड़े बसिया जाएंगे तो उसके बाद भी हमें इस मुद्दे पर सोचना होगा, नई शब्दावलियों पर काम करना होगा। हम शब्दावलियां बदलने के युग में प्रवेश कर चुके हैं।
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