“बयान”: एक सस्ती एंथ्रोपोलॉजिकल स्टडी
बयान ही दरअसल वो गोंद है जो मनुष्य से मनुष्य को, सांप को छुछंदर से, गधे को गधे से, पॉलटिक्स से मैथमैटिक्स को जोड़ता है। फिर भी बयान का अपना पर्सनल अहं नहीं । वो ख़ाली मुँह बदलता है।
बयान शाश्वत है। ना तो वो दिया जाता है, ना वो सुना जाता है। ब्रहांड का अकाट्य तत्व है बयान जो सिर्फ़ मुँह बदलता है। बयान अपनी पार्टी और अपना फ़ॉर्म बदलता है, नेता और वोटबैंक भी बदलता है क्योंकि बयान एक कॉस्मिक एनर्जी हैं। वो एनर्जी जिससे छिटक कर मनुष्य बना है । उसी परिघटना के बाद से तब से अबतक मनुष्य हमेशा बयानोन्मुख रहता है। हर दिन वो नए नए बयान के लिए बियाबान में जाता है। बड़े बड़े मुखार्विंद से निकले हर भोथर बयान में थेथर बनकर अपना ब्रह्म खोजता है। यही तड़प उसे हर दिन नए बयानबाज़ की ओर ले जाती है। जीवन का हर दिन हर पल उसका उस संपूर्ण बयान की खोज में गुज़रता है जो उसकी आत्मा, कलेजे और पॉकेट में पड़े सूराख़ को भर सके। उसे पूर्ण से संपूर्ण बना सके। जीव से जीवंत बना सके। सलीके का मनुष्य तो बना सके।
बयान शाश्वत है। सृष्टि का सूत्र ही दरअसल बयान है। बयान वो काइनेटिक फ़ोर्स है जो पृथ्वी को घुमाता है, इंसान का जंगली हिरण की तरह कुदाता है और मुद्दों को फुदकाता है। इसी का ज्ञान होने के बाद से तमाम पार्टियां समूची सृष्टि को टटोलती रहती हैं जिससे वो निराकार बयान को प्राप्त कर सकें। वो बयान जिस पर समर्पित होकर वो बयान से एकाकार हो जाए। सत्ता-विपक्ष के चक्र से दूर हो जाएं। आमजन को भी जन्म-मृत्यु-आरओवाटर-ईएमआई-विवाह-फ़ेसबुक-परिवार-ट्रैफ़िक-डेंगू-कब्ज़ियत-छिनैती जैसी तुच्छ समस्याएं बयानों की खोज में लगाए रखती हैं। पर बयान ना तो किसी का मित्र है ना शत्रु। ना तो ख़ुशहाली ही बयान सुनकर गदगद होती है ना गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी बयान सुनकर कांपती है। वो शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में विश्वास रखता है।
बयान तब से है जब इंसान नहीं थे। तब भी था जब प्रजातंत्र नहीं था। तब भी जब वोट नहीं दिए जाते थे। बयान आश्वासन की उत्पत्ति से भी पहले था और मोहभंग के बाद भी रहेगा। ना तो वो दावा है ना आरोप है। बयान सत्य और असत्य से परे है। वो एक प्रक्रिया है। एक रीले रेस। बस हाथ बदलता है। उसका काम तो दौड़ते रहना है, एक खिलाड़ी से दूसरे खिलाड़ी के हत्थे चढ़ना है। इसीलिए वो जीत और हार के चक्र से बाहर है। हर पांच साल में उसका एक चक्र पूरा होता है।
बयान की कोई विचारधारा नहीं। वो ना तो शाखा में जाता है ना कार्ड होल्डर है। वो किसी से अटैच्ड नहीं है। बयान इतना डिटैच्ड है कि निराधार है। बयान आधार से भी अटैच्ड नहीं है। फिर भी इस सबके बावजूद बयान अपने आप में परिपूर्ण है। उसे ना तो तोड़ा जा सकता है ना मरोड़ा।
बयान ही दरअसल वो गोंद है जो मनुष्य से मनुष्य को, सांप को छुछंदर से, गधे को गधे से, पॉलटिक्स से मैथमैटिक्स को जोड़ता है। फिर भी बयान का अपना पर्सनल अहं नहीं । वो ख़ाली मुँह बदलता है। आवाज़ बदलता है। ऐक्सेंट बदलता है। बयान कभी नया नहीं होता है। वो कभी पुराना भी नहीं पड़ता है। पूरा नहीं होता । अधूरा भी नहीं रहता है। वो एक आदत है। एक मजबूरी है। बयान एक लत है।
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