बॉलीवुड में क्यों है रोमांटिक जोड़ों का ओवरडोज़ और असल ज़िंदगी में क्यों पिटते हैं जोड़े ?
अगर आप दिल्ली में कार चलाते हैं और आपके जीवन का एक ही लक्ष्य हो कि ट्रैफ़िक में पागल नहीं होना है तो फिर उसके लिए दो ही तरीक़े हैं – एक तो संगीत और दूसरा दूसरों की कारों में झांकना, जिसे स्थानीय भाषा में ताड़ना कहते हैं। लेकिन अगर आपकी मध्यम वर्ग की कुटी हुई सभ्य अपब्रिंगिंग है तो फिर आप एक ही तरीक़ा अपनाएंगे वो है संगीत का। और मेरी समस्या इसी मुद्दे से शुरू हुई और फिर बढ़ती-बढ़ती ब्लॉग का शक्ल ले चुकी है।
किसी म्यूज़िक ऐप्प से सुन रहे हैं तो ठीक पर अगर किसी एफ़एम रेडियो स्टेशन पर चले जाएं तो मुझे जैसा संगीत प्रेमी त्राहिमाम त्राहिमाम कर देता है। अजीबोगरीब हालत हो गई है यहाँ तो, एफ़एम चैनलों पर चलते गानों को सुनकर लग रहा है कि रोमांस ने एक प्लेग का रूप धर लिया है। जहां देखिए रोमांस का ऐसा उन्माद है, संगीत का कंठ ऐसा दबा हुआ है कि लग रहा है कि प्रेमालाप मल्लयुद्ध में तब्दील हो गया है। गाने और भी बन रहे हैं, जैसा कि इंटरनेट पर देखकर पता चलता है, लेकिन वो सब बॉलिवुडिया रोमांटिक गानों के द्वारा ऐसे धकिया दिए गए हैं कि वो बिचारे कोने में पड़े हुए हैं। कैपिटलिस्ट धर्म में तो मार्केट में मोनोपली को तो उत्कर्ष समझा ही जाता है पर ये अंदाज़ा नहीं था कि संगीत भी एक दिन ऐसा ही हो जाएगा। और उस मोनोपली के लिए सहारा लिया गया है रोमांस का। उस धरती पर जहाँ साकार-आकार-निराकार-नाना प्रकार के प्रेम को स्वीकारा था। पर लग यही रहा है कि अब यहाँ प्रेम का एक ही रूप में स्वीकार्य है वो है लड़का-लड़की का प्रेम। उसका भी उतना ही हिस्सा, जिसकी वीकडे में उत्पत्ति हो और जो सैटरडे नाइट तक उपसंहार को प्राप्त हो। उसके अलावा प्रेम का हर स्वरूप त्याज्य है, परिहार्य है। किसी भी रेडियो चैनल पर चले जाइए, रोमांस के ही गाने ठेलाए जा रहे हैं। कोई भी टॉप 10- टॉप 40 गानों की लिस्ट निकाल लीजिए, प्लेलिस्ट रोमांस पर अडिग है । बीच में ब्रीदर मिलता है जब कुछ सूफ़ी गाने भी चलते हैं, वो गाने दरअसल इसलिए शायद क्योंकि वो विरह वाले प्लॉट के लिए फ़िट हो जाते हैं। ढोल-ताशे मिलाकर विरह वेदना को अच्छे कार्डियो कसरत में तब्दील कर सकते हैं। रेडियो जॉकी रोमांस का टेंप्रेचर उस हद तक बढ़ाते हैं जब तक कि नायिका का हृदय उबल ना जाए, सांस अटक ना जाए, आँखों की पुतलियां पलट ना जाएं और अंतत: वो कोमा में ना चली जाएगी। तब तक रोमांस का ड्रिप चढ़ता है जब तक नायक अपनी हैसियत से कहीं बड़ी रोमांटिक कोशिशों के लायक ऊर्जावान ना बन जाए और हैसियत से ऊपर का भार उठाकर हार्निया का शिकार ना हो जाएगा। फिर आरजे लोग इस मल्लयुद्धात्मक रोमांस की सप्रसंग व्याख्या भी करते हैं। और श्रोताओं के गरदन पकड़ कर सिर को रोमांस के हंड़िया में तब तक चांपते हैं जब तक वो नायक-नायिका के शाश्वत प्रेम की असल गहराई ना समझ जाएं। श्रोताओं को तब तक नहीं छोड़ा जाता जब तक मस्तिष्क के एक-एक नस में बॉलीवुडी रोमांस की चाशनी ना दौड़ने लगे। मैथिली के मुहावरे -मीठ स माहुर, का मतलब अब जाकर समझा कि मिठास इतनी बढ़ गई कि ज़हर लगने लगे। यहां तक कि एक चैनल का नाम भी इश्क या प्यार हो गया है। हालांकि दुनिया के मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसे नाम के चैनलों की ज़रूरत तो बहुत है पर लगता नहीं कि उस टार्गेट ऑडिएंस के लिए ये नामकरण हुआ है।
ये तो एक तथ्य है कि रोमांटिक प्रेम दरअसल वो मार्केट करने वाली कमोडिटी है जिसका मार्केट अभी यहाँ बन ही रहा है। बॉलीवुड से लेकर रेडियो कंपनी, होटेल-रेस्त्रां, ग्रीटिंग कार्ड कंपनी से लेकर मोबाइल फ़ोन सबके लिए बड़ा मार्केट। ‘हैप्पिली एवर आफ़्टर’ एक ऐसा जुमला है जिसके इर्द-गिर्द पूरा अमेरिकी मार्केट चल रहा है। रोमांटिक प्यार एक ऐसा आइडिया है जिसने पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में प्रेम के थिसॉरस को कूट कर कुंजी बना दिया और रोमियो-जूलिएट के प्रेम को इत्र बना दिया है और बाक़ी के प्रेम को फ़िनायल। पर भारत में इस रोमांस का मार्केट क्यों फलफूल रहा है ये समझ नहीं आता। जिस देश की जनता अपने जीवन में रोमांस का सामना होते ही पेचिश की शिकार हो जाती है वहाँ पर बॉलीवुडी गानों से लेकर चाय पत्ती, बनियान, हवाई चप्पल, वाशिंग पाउडर से अगरबत्ती तक के ऐड में रोमांस कैसे स्वीकार्य बनता है।
रोमांसिकरण की ये प्रक्रिया इसलिए और उटपटांग लगती है क्योंकि हमारे असल ज़िंदगी में रोमांस को लेकर रवैया बिल्कुल उल्टा है। इतना अटपटा कि शादीशुदा जोड़े अपने हनीमून की तस्वीरें दिखाते वक़्त संकोच करते हैं और जो ख़ुश होकर शेयर भी करते हैं उस पर भी टोकाटाकी होती है। संस्कृति में एक ऐसा उटपटांगपना है जिसके लिए जोड़ा देखकर कुछ ना कुछ प्रतिक्रिया करना ज़रूरी होता। दुनिया घूमने वाले हों या कूँएं के मेंढक, अनपढ़ या बड़ी पढ़ाई करने वाले, जोड़े को सहजता से ले ही नहीं पाते हैं। कुछ ना कुछ टीका टिप्पणी ज़रूरी है, छोड़ना नहीं है। सड़क पर मरते इंसान को भले ही छोड़ दिया जाए, जोड़े दिख जाए तो मजाल है कि कोई छोड़ दे। पहले तो पुलिस वाले दौड़ाते हैं, फिर बच गए तो मोरल पुलिस वाले दौड़ाते हैं। वैलेंटाइन डे पर तो जोड़ों का शिकार फ़ेवरेट टाइमपास होता है। हर हरे-भरे पार्क के चक्कर काटते पुलिस वालों को हम देखते ही रहते हैं । इस बार कोई बता रहा था कि एक पार्क के बाहर एक जिप्सी 16-17 घंटे तक खड़ी रही। बताइए, देश को कितनी बड़ी आपदा से बचाया इस पुलिस जिप्सी ने । वैसे पुलिस जहाँ नहीं पहुँच सकते वहां पर भी देश की सभ्यता-संस्कृति बचाने का बीड़ा कुछ उठा लेते हैं। वो गली-कूचे जोड़ों का इंस्पेक्शन करते हैं, धमकाते हैं, घेर कर बेइज़्ज़त करते हैं, लड़के-लड़कियों को मारते हैं, लड़कियों के कपड़े फाड़ते हैं, वीडियो बनाते हैं, फिर राष्ट्र की सभ्यता को बचाने की कसम खाते हुए वीडियो को सोशल मीडिया पर डालते हैं। फिर संस्कृति की रक्षा में लगे फ़ेसबुकैत इसे और वायरल बनाते हैं। यहां पर हर दिन टाइमलाइन पर माता के प्रेम से जुड़े पोस्ट किए जाते हैं, परिवार के प्रेम को प्रोत्साहित करते वीडियो ठेले जाते हैं। अपने अपने इष्ट देव की सीवी छाप कर उन्हें प्रेम करने और फिर लाइक ठोकने के लिए प्रचार करते हैं। वैलेंटाइन डे का विरोध करते हैं, कि प्रेम का एक दिन क्यों और फिर उसी दिन को मा-बाप दिवस के तौर पर मनाने में लग जाते हैं। आख़िर असल जीवन की असहिष्णुता वर्चुअल जीवन में इतनी मान्य कैसे हो जाती है ?
पता नहीं ये हो क्या रहा है, संगीत में मार्केटिंग की छौंक से पूरा गाँव का दम फूल रहा है कि जनता की कुंठा से, पर अब ब्लॉग लिखने के बाद मैं बेहतर तरीक़े से सोच पा रहा हूँ और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अपने सीडी प्लेयर को ठीक कराने का वक़्त आ गया है।
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