क्या गाड़ियों की टेस्ट ड्राइव रिपोर्ट पर भरोसा कम हुआ है ?
फिर भी तमाम जानकारियों के बावजूद इंसान का दिमाग़ शायद वक़्त लगाकर लिए गए फ़ैसले को ज़्यादा तरजीह देता है इसीलिए हर लौंच के कई दिनों बाद तक मुझे सवाल आते रहते हैं…फ़ेसबुक…ट्विटर..यूट्यूब..इंस्टाग्राम पर..चलते-फिरते, टायलेट में, मॉल में, एयरपोर्ट के इमिग्रेशन काउंटर पर और चाय की दुकान पर। हम ज़्यादा जानकारी और कम फ़ैसले के युग में जी रहे हैं।
टेस्ट ड्राइव रिपोर्ट, फ़र्स्ट ड्राइव रिपोर्ट या ड्राइव का इंप्रेशन ऐसी चीज़ें हुआ करती थीं जिनका इंतज़ार होता था। कार और मोटरसाइकिल कंपनियां बहुत नहीं थीं। लौंच बहुत नहीं हुआ करते थे। हम जैसे कई मोटरिंग पत्रकार गाड़ियों को चलाते थे, एक एक स्टोरी के लिए कई कई दिन शूट करते थे। फिर वक़्त लगाकर वीडियो एडिटिंग करते थे और तब आता था वीकेंड और हमारी स्टोरी चला करती थी। प्रिंट में ऐसा नहीं होता था। वहाँ मैगज़ीन की क्लोज़िंग होती थी और वहाँ पर रिपोर्ट देखने के लिए महीने भर का इंतज़ार करना पड़ता था। इसके बाद यूट्यूब ने इस टाइमलाइन को बिल्कुल बदल कर रख दिया। अब किसी भी दिन वीडियो दर्शकों के सामने देने का विकल्प आ गया और लोग अपनी सुविधा से उसे अपने वक़्त पर देखने लगे। तो जब भी स्टोरी तैयार होती थी, स्टोरी ‘ऑन एयर’ होने लगी।
इसी तरह से ब्लॉगर्स ने भी इस स्पेस को बदल दिया। बहुत से कार प्रेमी-मोटरसाइकिलप्रेमी ब्लॉगर बन गए। अपनी बातों को, भावनाओं को इंटरनेट पर रखने लगे। लोग उनसे जुड़ने लगे। कंपनियों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। ब्लागर्स के लिए अलग आयोजन, ड्राइव और राइड होने लगे। दर्शक और पाठक इनसे शायद इसलिए भी ज़्यादा जुड़े क्योंकि उन्हें पारंपरिक मोटरिंग जर्नलिस्ट की तरह नहीं लगे, इनकी रिपोर्टिंग आसान लगी, समझने वाली, बिना किसी लाग लपेट के। मोटरिंग पत्रकारों के लिए जो शक़ का भाव दर्शकों और पढ़ने वालों में रहता है वो इन ब्लॉगर के लिए नहीं था। ये बात अलग थी कि बहुत से ब्लॉगर्स ऐसे निकले जो इन गाड़ियों को चला कर इतने धन्य महसूस करने लगे कि हर गाड़ी का गुणगान ही होने लगा, हर कार फ़ेरारी और हर बाइक डुकाटी ही होने लगी। इससे गाड़ियों की टेस्ट ड्राइव रिपोर्ट की विश्वस्नीयता ज़रूर गिरी, पर कार कंपनियों के लिए ये नौजवान फ़ायदेमंद विकल्प थे। उन्हें इंप्रेस करना प्रभावित करना आसान था। पर ऐसा नहीं कि सभी ऐसे थे या ऐसा नहीं होना चाहिए था। बहुत से ब्लॉगर्स ने अच्छी रिपोर्टिंग से ये साबित किया कि पारंपरिक मैगज़ीन और प्रोग्राम जो जानकारी दे रहे थे वो अधूरे थे और उनकी कमियों को दूर करने की ज़रूरत थी।
फिर आए स्मार्टफ़ोन और आई कनेक्टिविटी। अब वीकेंड या यूट्यूब अपलोड से कहीं पहले कहानी लोगों तक जाने लगी। फ़ोन के पेरिस्कोप ऐप से बहुत से कार-प्रेमी-टर्न्ड-ब्लॉगर ने गाड़ियों के लौंच को ही लाइव कर दिया। वो भी टीवी या यूट्यूब के ज़रिए नहीं। मोबाइल फ़ोन के ज़रिए। अब गाड़ियों के बारे में जानने के लिए लोगों को ना तो वीकेंड का इंतज़ार करना था, ना टीवी के एयरटाइम का इंतज़ार करना था और ना ही मौक़ा निकाल कर ऑफ़िस टर्मिनल पर या घर जाकर यूट्यूब लॉगिन करना था। अब गाड़ियों और मोटरसाइकिलों के बारे में हर जानकारी लाइव आपके फ़ोन पर आ रही थी। पेरिस्कोप जैसे बाक़ी ऐप्स भी आते गए। जिनमें सबसे प्रचलित तो आजकल फ़ेसबुक लाइव हो गया है। पेरिस्कोप, इंस्टाग्राम और यहाँ तक की यूट्यूब भी लाइव। तो अब कमान कंपनियों के पास चली गई, जहाँ उन्होंने अपने ईवेंट लाइव करने शुरू कर दिए। अब उन्हें अपनी शुरूआती जानकारी देने के लिए पत्रकारों के ज़रिए की ज़रूरत नहीं थी। अब कंपनियां अपने मन की बात सीधे ग्राहकों तक पहुँचा सकती थीं, फ़ेसबुक और यूट्यूब लाइव के ज़रिए। अब ये ऐसी स्थिति है जहाँ पर बहुत से मैगज़ीन, टीवी शो और ब्लॉगर को अपनी भूमिका फिर से तय करनी थी। तो ऐसे में जैसा कि होता है अब रेस चल रही है। किसी भी लौंच या टेस्ट ड्राइव का जो ईवेंट होता है, उनका रिव्यू या टेस्ट ड्राइव रिपोर्ट कुछ घंटों में ही अपलोड हो जाता है। और हर गाड़ी की चर्चा एक या दो दिन में ख़त्म हो जाती है। अलग अलग यूट्यूब चैनलों और वेबसाइट्स पर गाड़ियों की एक एक जानकारी आ जाती है। कुछ मिनटों में धारणा तैयार होने लगती है और कुछ घंटों में फ़ैसला दे दिया जाता है कि गाड़ी ख़रीदने लायक है या नहीं।
टेस्ट ड्राइव के डेडलाइन की दौड़भाग ने किया ये है कि गाड़ियों की रिपोर्टिंग से जुड़े सभी लोग एक ही जैसे लगने लगे हैं। अब टीवी पर आने वाले ऑटो शो, यूट्यूब पर आने वाले ऑटो चैनल, फ़ेसबुक-इंस्टाग्राम और इंटरनेट पर लिखने वाले ब्लॉगर, सभी एक रेलगाड़ी में सवार होकर रेले में किसी लौंच ईवेंट में पहुँचते हैं, किसी जंकेट ड्राइव पर पहुँचते हैं, ठकाठक ड्राइव रिपोर्ट आने लगती है, ट्वीट्स आने लगते हैं और अपडेट्स आने लगते हैं। अब वाकई मल्टीमीडिया का वक़्त आ गया है। कोई भी मीडियम अब अलग नहीं लग रहा है, हम सब मल्टी हो गए हैं। हम सब एक जैसे लोकेशन से, एक जैसे संदेश, ड्राइव रिपोर्ट, बैकग्राउंड, शॉट्स और फ़ोटो के साथ एक जैसी कहानी कह रहे हैं। पर लाइट की स्पीड से आने वाले ये रिपोर्ट जानकारी तो देते हैं पर फ़ैसला करने में पूरी तरह मददगार नहीं हो रहे हैं। जबकि सभी रिपोर्ट्स को देखें तो लगेगा कि जितनी हो सके सभी कमियों और ख़ूबियों के बारे में जानकारियां तो दे ही दी जाती हैं।
फिर भी तमाम जानकारियों के बावजूद इंसान का दिमाग़ शायद वक़्त लगाकर लिए गए फ़ैसले को ज़्यादा तरजीह देता है इसीलिए हर लौंच के कई दिनों बाद तक मुझे सवाल आते रहते हैं। पहले एसएमएस पर आता था, ईमेल पर आता था। अब सवाल हर तरफ़ से आते हैं। फ़ेसबुक प्रोफ़ाईल पर, फ़ेसबुक पेज पर, ट्विटर पर, यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर। पर ऐसा नहीं कि सभी सवाल वर्चुअल वर्ल्ड से ही आएं, रीयल वर्ल्ड से भी आते हैं। जैसे टायलेट में, मॉल में, एयरपोर्ट के इमिग्रेशन काउंटर पर और चाय की दुकान पर।
हम ज़्यादा जानकारी और कम फ़ैसले के युग में जी रहे हैं।
Recent Comments