अज़ान और भगवती जागरण वाली बहस के बीच लाउडस्पीकर की रणभूमि बना मेरा गाँव
अज़ान और भगवती जागरण वाली बहस के बीच लाउडस्पीकर की रणभूमि बना मेरा गाँव
जो तस्वीर मैंने अभी सबसे पहले लगाई है, उसे देखकर कैसी छवि आपके दिमाग़ में आ रही है ? आम के बग़ीचे के बीच, रखवाले के लिए बना एक मचान। बैकग्राउंड से बहुत दूर गुज़रती हुई दो महिलाएं । ज़्यादा चांस है कि इसे देखकर अंग्रेज़ी में ‘टिपिकल विलेज’ वाली फ़ील आएगी। सुस्त चाल में चिड़ियों की चहचहाहट युक्त एक शांत बग़ीचा, जो दोपहर को अलसा कर काटने का न्यौता दे रहा हो। हो सकता है आपका स्क्रीनप्ले थोड़ा अलग भी हो, कुछ भाव अलग उपजें पर गाँव की इस इमेज के साथ एक शांत, निश्चिंत भाव तो ज़रूर जुड़ा होता है। मैं भी हाल में गाँव नहीं जाता तो शायद गाँव को ऐसे ही याद कर रहा होता। लेकिन, अगर मैं कहूँ कि इस तस्वीर में जो दिख रहा है उसके अलावा इस इमेज में कुछ भी सच नहीं है तो ? अगर मैं कहूँ कि मेरे आज के गाँव से ज़्यादा शांति दिल्ली में डीडीए पार्क की दुपहरी में या नौएडा के हाउसिंग सोसाइटी में मिलेगी तो ? अगर मैं कहूँ कि जब ये तस्वीर खींच रहा था तब मेरा मन एकदम विचलित था, और चारों ओर का शोर मुझे बेचैन बना रहा था तो ? मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा, ना ही मैं शहरी बाबू हूँ, ना ही मैं आध्यात्मिक अशांति की बात कर रहा हूँ। मेरे गाँव की शांति भंग हो चुकी है और इस अशांति के समीकरण में सांप्रदायिक सौहार्द्र वाला वेरिएबल नहीं है। ये डेसिबल लेवल वाला है। और ये भी बता दूँ कि ऐसी स्थित केवल मेरे गाँव की नहीं, रास्ते में जिन-जिन गाँवों से गुज़रा कमोवेश वैसी ही हालत दिखी।
इतने सालों के बाद जाने पर, अपनी क़िस्मत को कोसती टूटी फूटी सड़कें भी वैसी ही मिलीं, सड़क किनारे आम के बग़ीचे भी वही मिले, फूस के घर भी लगभग उसी संख्या में मिले, गाँव से ठीक पहले ईंट की भट्टी भी मिली, मंदिर भी मिले, दयनीय से खड़े हैंडपंप जिन्हें हम लोग चापाकल कहते हैं, वो भी मिले, पर गाँव के नाम पर जिस शांति की याद आती थी, गाड़ी-ट्रैफ़िक और दिल्लीवालों के हॉर्न, गुस्से और गालियों से दूर केवल इंसानों की गहमागहमी वाली शांति, वो नहीं मिली। कुल मिलाकर ग्राम्य जीवन का कौंसेप्ट औंधे मुँह पड़ा मिला।
दरअसल स्थिति ये थी कि चौबीस में से अठारह बीस घंटे चारों ओर से बड़े बड़े स्पीकर से वातावरण में शोर ठेला जा रहा है। इतना शोर कि दरवाज़ों खिड़कियों को बंद कर दीजिए फिर भी मन बेचैन रहेगा। और जैसी कि मेरी क़िस्मत थी, पिछले कुछ सालों से शुरू एक नए तरह की पूजा भी चल रही थी जिसमें लगातार नौ दिन दुर्गा स्थान यानि मंदिर में चौबीस घंटे कोई ना कोई लाउडस्पीकर पर कीर्तन कर रहा था। पहला दिन तो मेरा भौचक्का होकर गुज़रा। स्वीकार करने में कि मैं गांव मैं ही हूँ। परिवार के लोगों से चिल्ला-चिल्ला कर बात करनी पड़ रही थी। आंगन से बाहर भाईयों से मिले तो चिल्ला-चिल्ला कर बात करनी पड़ रही थी। ये अभूतपूर्व था। पूरे दिन भोलेनाथ, हनुमान जी और अल्लाह मियाँ से भक्तों की बातें सुनते रहिए और जब रात हो जाए तो रामजी से। और फिर ये सोचते सोचते सोना कि आख़िर सभी धर्मों के भगवानों ने भक्तों को बिना लाउडस्पीकर सुनना बंद कर दिया है ?
अभी सोनू निगम के ट्वीट पर इतना बवाल हुआ तो अजीब सी बहस देखने को मिलने लगी। मुझे पता नहीं कि उनकी मंशा क्या थी ? उनका सर मूड़ने वाले को दस लाख का ईनाम घोषित करने वाले की क्या मंशा थी ? जिस माहौल में हम जी रहे हैं वहाँ पर जीवन की हर क्रिया एक पब्लिसिटी स्टंट लगती है, पर वो मेरी सोच की तात्कालिक सीमा हो सकती है। पर सोनू निगम के बाल मुड़ाने से ज़्यादा आश्चर्य मुझे उनकी निंदा और उनका समर्थन करने वालों के तर्कों को लेकर हुआ। आलोचना करने वाले लाउडस्पीकरों की प्रशंसा में ऐसे जुट गए जैसे भगवान दिल में नहीं लाउडस्पीकरों में बसते हैं, सुबह अज़ान की आवाज़ और मंदिर की घंटियों की टंकार को मिला कर एक ऐसा तर्क तैयार कर रहे थे कि आश्चर्य हो रहा था।
एक पक्ष का ये कहना था कि वो झूठ बोल रहे हैं, उनके घर पर कोई आवाज़ आती नहीं। एक ने बताना शुरू कर दिया कि कैसे लाउड स्पीकरों की आवाज़ जीवनचर्या को अनुशासित करते हैं । वगैरह। फिर सोनू निगम ने अपने ट्विटर पर अपना ऑडियो वीडियो डाल कर गुड मॉर्निगं किया। वहीं सोनू निगम की प्रशंसा करने वाले ऐसे पताका लेकर निकल गए जैसे चौबीसो घंटा लाउडस्पीकर से केवल अज़ान की ही आवाज़ आती है। रात रात भर के भगवतीजागरण को भूल जाते हैं। जगराता को भूल जाते हैं। सड़कों पर टेंट-कनात लगाकर पूरी कॉलनी को जगा के रखने वाले डीजे भक्ति भूल जाते हैं। लाउडस्पीकर पर दिन भर गाना बजा के दुर्गा पूजा और ट्रकों पर डीजे चढ़ाए कांवड़ियों को भूल जाते हैं। पता नहीं धर्म का मामला आते ही ऐसे तर्कों को भेड़ियाधसान क्यों हो जाता है ? क्यों ऐसा होता है कि या तो सब चुप रहेंगे या फिर उठेंगे तो लाठी-भाला लेकर ही। और सरकारें-प्रशासन कहाँ रेत में सर छुपाए रहते हैं ? क्यों नहीं सीधे सीधे लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल बैन करते हैं ? हिंदू-मुस्लिम सबके लाउडस्पीकरों को। कहते हैं कि भगवान से बात करनी है तो सीधे बात कीजिए ?
अब हर इंसान अलग अलग होता है, जीवनशैली, जीवनचर्या और स्थिति होती है, संस्कार में धार्मिकता का डोज़ भी अलग अलग होता है, नौकरी नाइट शिफ़्ट वाली भी होती है, लोग बीमार भी होते हैं, परीक्षा की तैयारी में रातभर जगने वाले छात्र होते हैं, सब के लिए सुबह-शाम लाउडस्पीकर की आवाज़ कैसे स्वास्थ्यप्रद हो सकती है। या फिर कोई नास्तिक ही क्यों ना हों या फिर आलसी। क्यों नहीं उनका भी लिहाज कर लिया जाए ?
सोनू निगम के घर जाकर वहाँ डेसिबल लेवल चेक करके सच का सामना कराने से, या सोनू निगम द्वारा सुबह-सुबह अज़ान की अावाज़ के साथ ट्वीट करने जैसे बहस से मामला सलटेगा नहीं। लोगों से होना भी मुश्किल है, जो धार्मिक-संकीर्णता से धर्म-भीरुता के मकड़जाल में फंसे हुए हैं। मुंबई के मोहम्मद अली जैसे हिम्मती लोग कम होते हैं, जो सालों से लाउडस्पीकर हटाने में लगे हों। जैसे गाँव की चर्चा में मैंने महसूस किया कि भगवान के काम में सवाल उठाने में हिचक या मन में खटका आम भाव है। पॉलिटिकल पार्टियों के लिए भी ये सिर्फ़ राजनैतिक मुद्दे हैं, इसीलिए रात दस बजे के बाद गोवा में पार्टियों को बैन करना आसान होता है। धार्मिक मामले को सलटाने का उनका तरीक़ा एक ही हो सकता है कि अज़ान की आवाज़ और हनुमान चालीसा के पाठ को आपस में भिड़ाएं।
स्थिति केवल मेरे गाँव की ही ऐसी नहीं है। देश के कई हिस्सों की ये सच्चाई है। शोर सबसे शुरूआती हिंसा है, जिसके असल हिंसा में तब्दील होने में वक़्त नहीं लगता है । सोशल मीडिया से लेकर ट्रैफ़िक हर तरफ़ बढ़ता शोर हिंसा के पिनकोड में ही आते हैं। हिंदू-मुस्लिम करके इसको जस्टीफ़ाई करने की नहीं, इस हिंसा से सबको बचाने की ज़रूरत है। धरतीवालों को भी और ऊपरवालो को भी, बिना इस बहस में पड़े कि किस धर्म का डेसिबल लेवल कितना है।
Badhiya likha hai sir. Ativad ke yug me ji rahe hain ham, jahan vastvikta par koi dhyan nahi deta.