मुद्दों को उठाने की ज़रूरत नहीं अब, मुद्दे अब उठे-उठाए आते हैं।
ताज़ा शोध बता रहा है कि अब जो नए मुद्दे आ रहे हैं वो परजीवी नहीं रहे, स्वावलंबी हो गए हैं। वो रेडीमेड उठे हुए आते हैं। अब उनके जींस और उनके डीएनए में कुछ ऐसी तब्दीलियां आई हैं कि मुद्दे उठे-उठाए आ रहे हैं, जन्म ही उठी हुई स्थिति में होता है। ये मुद्दों का सोशल मीडिया कौंपैटिबल वर्ज़न है, मुद्दों को उठने के लिए किसी मनुष्य के सोशल मीडिया अकाउंट, लाइक या रिट्वीट वर्ज़न की ज़रूरत नहीं। अब मुद्दे ख़ुदबख़ुद वायरल हो जाते हैं। कई बार बैक्टीरियल भी।
ताज़ा शोध बता रहा है कि अब जो नए मुद्दे आ रहे हैं वो परजीवी नहीं रहे, स्वावलंबी हो गए हैं। वो रेडीमेड उठे हुए आते हैं। अब उनके जींस और उनके डीएनए में कुछ ऐसी तब्दीलियां आई हैं कि मुद्दे उठे-उठाए आ रहे हैं, जन्म ही उठी हुई स्थिति में होता है। ये मुद्दों का सोशल मीडिया कौंपैटिबल वर्ज़न है, मुद्दों को उठने के लिए किसी मनुष्य के सोशल मीडिया अकाउंट, लाइक या रिट्वीट वर्ज़न की ज़रूरत नहीं। अब मुद्दे ख़ुदबख़ुद वायरल हो जाते हैं। कई बार बैक्टीरियल भी। ख़ैर तो ऐसी ही कमी से जूझते हुए मैंने कोशिश की कुछ निम्न प्रकार के लुच्चे और टुच्चे मुद्दे ही उठा लूं, अंडर द रेडार, जो बहुत ज़्यादा नहीं उठ पाए थे। तो पता चला कि अडैप्टेशन की उस रेस में भी मैं काफ़ी पिछड़ चुका हूँ। देश के जागरुक नेता-अभिनेता-प्रवक्ता-सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर उन मुद्दों को उठाने में पहले से मुब्तिला हैं। इन सबके बाद में मैं एक अत्यंत मुद्दाविहीन निरीह विचारक बना हुआ बारापुल्ला पर टहल रहा हूँ, जो अपने आप में काफ़ी उठा हुआ है और वहां पर पता चला था कि ज़रूरत से ज़्यादा ऊपर उठे मुद्दों को उस ऊँचाई से पतंग की तरह लूटा जा सकता है। तो वहां पर मनोरम दृश्यों के बीच मुद्दों का मांझा पकड़ने में लगा हूँ। पर सप्लाई कम है।
बलात्कारी राम रहीम को जेल की सजा सुनाई दी गई। 30-40 लोगों के मारे जाने पर सरकार ने सफाई दे ही दी। बच्चे मर ही चुके हैं। ट्रेनें पलट ही चुकी हैं। बिहार में बाढ़ पर हवाई यात्रा भी हो ही गई । असम में बाढ़ की मीडिया कवरेज भी हो गई। ट्रिपल तलाक का मुद्दा भी सुलझ गया। चीन ने भी घुटने टेक ही दिए हैं। पाकिस्तान को भी डोनाल्ड ट्रंप ने रपेट ही दिया है। बवाना में नतीजों के बाद ईवीएम भी अब भरोसेमंद साबित कर ही दिया गया है। वेमुला का कास्ट पता चल ही चुका है। अब तो टॉयलेट भी एक प्रेम कथा हो चुकी है। अक्षय कुमार की नागरिकता का मुद्दा भी उठ चुका है । मुंबई ने भी चुभक-चुभक कर बाढ़ में चलना शुरू कर ही दिया है। नोटबंदी के नोट भी वापस आ चुके हैं। साथ में दो सौ का नोट भी आ चुका है। जीएसटी भी अभूतपूर्व सफलता को प्राप्त कर ही चुकी है। लालू की रैली में समर्थकों का रेला लग ही चुका है। बेलंदोर झील पर झाग भी आ ही गया है। पीवी सिंधु को चोकर कहने का मुद्दा भी उठ चुका था। मैं तो ये सोच रहा था कि धोनी के मैच के बीच फ़ील्ड के बीचोबीच नींद लेने का मुद्दा बन सकता था पर भारत मैच ही जीत गया। फिर लगा कि सिंधू को चोकर कहने वाला हेडलाइन तो बहसीय मुद्दा है, पर ट्विटर पर उसे हाथोंहाथ लेकर उठाया जा चुका था।
पर लग रहा है कि जैसे डीयू का कटऑफ़ निन्यानबे दशमलव नौ नौ फ़ीसदी तक जा रहा है वैसे ही मुद्दे अब इतने उठ जाएंगे कि हवाई यात्राएं असुरक्षित हो जाएंगी। हो सकता है कुछ मुद्दे सैटेलाइट से भी टच कर जाएं। हैं बहुत से इंटरस्टेलर मुद्दे। ख़ैर मुद्दों के इस सेनसेक्स में मेरा स्टॉक बिल्कुल डाउन है। सोशल मीडिया में सूनापन है। एक अजीब सी उपलक्ष्य हीनता महसूस हो रही है। अगर मुद्दे ही ना उठा पाऊं तो फिर सोशल मीडिया पर मेरा वजूद क्यों है, क्या है ? ऐसे में कुछ अगर आग्रह करते भी हैं कोई मु्द्दा उठाने के लिए तो लगता है कि वो मुँह चिढ़ा रहे हैं या फिर मेरी टाइमलाइन देखकर दया कर रहे हैं।
हम सभी सोशल लोगों के लिए ये एक चुनौती वाला दौर है। मुद्दों का स्वावलंबन, ख़ुद से उठने की प्रवृत्ति हवाई यात्राओं के लिए तो एक ख़तरनाक ट्रेंड है ही, एक ऐसी सामाजिक विकृति भी है जिससे हम सबको निपटना होगा। नहीं तो हम सभी के टाइमलाइन मरघट हो जाएंगे। फ़िलहाल मैं ग़म ग़लत करने के लिए जंतर-मंतर जा रहा हूँ। पोकेमॉन गो बता रहा है वहाँ पर कुछ मुद्दे मिल सकते हैं। सी यू गाय्ज़।
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