सुना मुख्यमंत्री जी ने ट्रैफ़िक जाम के बॉटलनेक पर रिपोर्ट मांगी है ?
आख़िरकार एक फ़ैसले की ख़बर आ रही है। वो फ़ैसला जो फ़ैसले पर पहुँचने के लिए किया जाता है। ये कि अफ़सर जाएं और पता लगाएं कि दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफ़िक में बॉटलनेक्स कहाँ कहाँ हैं ( या फिर दिल्ली के भाषा में कहें तो कहां पर ट्रैफ़िक का टेंटुआ दबा हुआ है। और अगर आप दिल्ली में आम तौर पर ख़ुद ड्राइव या राइड करते हैं तो फिर आपको पता होगा कहाँ पर होता है ऐसा नज़ारा। अगर ख़ुद नहीं चलाते हैं तो फिर आपको वैसा अंदाज़ा नहीं होगा। आपको अंदर से लगता होगा कि आपको पता है कि कहाँ जाम होता है। ये इनसाइट दरअसल साहित्य के भोगा हुआ यथार्थ वाली श्रेणी में आती है। आपको अपने ड्राइवर से संवेदना हो सकती है, काम पर जाने के लिए लेट हो सकते हैं, आसपास के ट्रैफ़िक को आप देख सकते हैं, दिल्ली वालों की गाली की क्षमता को भी आप माप सकते हैं पर फिर भी आप शायद उस गहराई से ट्रैफ़िक के बारे में महसूस नहीं कर सकते जिस आध्यात्मिक स्तर पर ड्राइवर महसूस करता है। पर मैं इस विषय पर, अपनी क्षमता और लत के बावजूद, लंबा नहीं लिखूंगा। मैं बिना वक़्त गंवाए, तुरत के तुरत, मुख्यमंत्री जी को साधुवाद देता हूँ। और अपील करता हूँ कि वो ट्रैफ़िक के बॉटलनेक का नेक तोड़ने के लिए प्रयासरत हो जाएं।
तो जैसा कि आमतौर पर होता है सामाजिक हित के लिए लिखने वालों के अंदर एक ललक होती है। वो ललक है अपनी राय देना, सुझाव देना और सलाह देना, जिसके लिए ज़रूरी होता है कि प्रिमाइस को दबे-कुचले लोगों की व्यथा से जोड़ दिया जाए, जो पहले पैराग्राफ़ में सफलतापूर्वक मैं कर गुज़रा हूँ। अब अपने मंशा का हलफ़नामा देकर आगे बढ़ता हूँ। और पहला सुझाव देता हूँ। वो है पंचवर्षीय योजना ना बनाएं, वो आउटडेटेड हो चुके हैं। पंच-हफ़्तीय योजना बनाएं। बेबी-स्टेप। और बॉटलनेक बड़ा स्टेप है, पहले आसान लक्ष्य रखिए। जल्दी होगा। वो क्रांतिकारी लक्ष्य है कीचड़ साफ़ करवाना। जिसे अख़बारी हिंदी में डीसिल्टिंग भी कहते हैं। तो बॉटलनेक से निपटने के लिए ज़रूरी है कि नेक के साथ साथ कमर और कंधों पर भी ध्यान देना चाहिए, तो फ़र्स्ट-थिंग-फ़र्स्ट। सड़क किनारे ड्रेनेज सिस्टम को साफ़ करवाया जाए। अब रोल जिसका भी हो। म्यूनिसपालिटी का या फिर आधे राज्य की पूरी सरकार का। पर साफ़ करवाना ज़रूरी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल एक तिहाई नाले ही साफ़ किए गए हैं। अगर ये सही है और मानसून भी सही है तो फिर दिल्ली में जलप्रलय के लिए तैयार रहिए। और फिर बॉटल नेक की बात ही ख़त्म हो जाएगी। पूरा का पूरा बॉटल ही नेक हो जाएगा।
दूसरी जानकारी मैंने ये भी पढ़ी कि आप सरकार ने पीडब्ल्यूडी और एमसीडी के अधिकारियों के ख़िलाफ़ जांच और कड़ी कार्रवाई की मांग की जिन्होंने डीसिल्टिंग को लेकर ग़लत रिपोर्ट दी है। वो तो जब होगा तब होगा। अभी फ़िलहाल क्या होगा जब बारिश का मौसम आ गया है। आंकड़ों के हिसाब से तो मॉनसून अगर एक तिहाई भी आए तो कहानी ख़राब हो जाएगी देश की राजधानी की, क्योंकि अब पहले जैसी बात कहाँ रही है। पहले तो गाड़ियां कम थीं और नाले खुले थे ।
हमने जब रिपोर्टिंग शुरू की थी तो दिल्ली में चार-पांच स्पॉट थे जहाँ पर बारिश के बाद चटकदार स्टोरी के लिए चटकदार विज़ुअल मिलते थे।जहाँ पर प्रिंट और टीवी के फ़ोटोग्राफ़र पहुँच कर जलजमाव की स्टोरी करते थे। कारें धक्का खाती थीं, तमाशबीन भुट्टा खाते थे।ऐसे फ़ोटो-ऑप के लिए चुनिंदा स्पॉट थे, एक-आध डीटीसी बसों का तो जन्म ही मिंटो ब्रिज के जलजमाव में जलमग्न होने के लिए होता था। लेकिन आज देखिए। आज जल समाधि के लिए मिंटो रोड पर जाने की ज़रूरत नहीं है, दिल्ली के कोने कोने में ये सुविधा उपलब्ध है। ज़रा सी बारिश हुई नहीं कि सड़कों के फेफड़ में पानी चला जाता है और ट्रैफिक बिना पानी मछली की तरह छटपटा जाता है।
मैं उम्मीद करता हूँ कि व्यंग्य को गंभीरता से ना लेते हुए ब्लॉग को एक चिट्ठी समझिएगा। और जब बात चिट्ठी तक आ ही गई है तो इसे तार भी समझ ही लीजिएगा और कृपया केवल रिपोर्ट मंगवा कर बात ख़त्म मत कीजिए । केंद्र के साथ मिल बैठकर कुछ करवाइएगा। बाक़ी मैं ब्लॉग दागता रहूँगा। सादर ।
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