क्या रोहित वेमुला देख चुका था कि अंत में डेथ सर्टिफ़िकेट बनाम कास्ट सर्टिफ़िकेट होगा ?
कोई भी विचार या मूल्य जब सार्वजनिक होता है तो फिर ये स्वीकार करना ही होता है कि उसका रूप-स्वरूप क्या रहेगा, क्या जाएगा, जड़ बचेगी या शाख़, अंत बदलेगा या प्रारंभ, ये निर्णय या नियंत्रण सिर्फ़ उन्हीं के हाथ में होगा जो उसको हांक रहे होंगे। वही हुआ भी। जैसा की विचारों के साथ होता भी है, उसके कई अर्थ होते हैं, कई व्याख्याएं होती हैं। वही हुआ जब रोहित वेमुला के प्रकरण के साथ। जब उसकी चिट्ठी मैं पढ़ता हूँ। उसकी चिट्ठी की हरेक पंक्ति अलग अलग पक्षों द्वारा अपने अपने तरीक़े से निकाली, पकाई और पाली-पोसी गईं। अपनी-अपनी राजनैतिक अपेक्षाओं और प्रतिबद्धता को देखते हुए। किसी ने उसके दलित पक्ष को उभारा, किसी ने उसके केंद्रीय यूनिवर्सिटी का छात्र होने वाला सिरा पकड़ा, किसी ने उसकी चिट्ठी की एक द्रवित करने वाली पंक्ति “ मेरा जन्म ही मेरी सांघातिक दुर्घटना है” को हेडलाइन के तौर पर देखा। घटना को इतने दिन हो चुके हैं कि उसके बारे में हम सबके पास काफ़ी जानकारी आ चुकी है, धारणाएं बन चुकी हैं। और गौरक्षक मंडलियों ने दलित डिस्कोर्स में रोहित को पीछे धकेल भी दिया है।
आज सुबह से देख रहा था कि एक सदस्यीय टीम ने रोहित वेमुला की जाति का पता लगाने का दावा किया है। वो दलित नहीं था। वो ओबीसी था। फ़िलहाल सरकार की मुहर लगनी शायद बाक़ी है। मंत्री कह रहे हैं कि रिपोर्ट यूजीसी को भेजी गई लग रही है। बाद में बताएंगे। उसी रिपोर्ट में अलग-अलग पक्षों की बात भी पढ़ रहा था। मंत्रियों की दलीलें हम सुन चुके हैं, रोहित को चाइल्ड बताया गया, सबसे शुरूआती कोशिशों में ये थी रोहित को दलित स्टेटस को चुनौती दी जाए। आख़िर वो कौन सा राजनैतिक डर होता है जिससे एक छात्र की जान जाने से ज़्यादा अहम हो जाता है उसकी जाति। तब से लेकर अब तक मुहिम यही चलती रही है कि किसी तरीक़े से ये साबित हो जाए कि रोहित दलित नहीं था तो राजनीति अगले पायदान पर जा सकती है। रोहित को अंदाज़ा तो था इस बात का। मरने से पहले ही विचारधाराओं की चतुराई और कलाबाज़ियां वो देख चुका था। वामपंथियों की विडंबना तो वो देख ही चुका था जो पंक्तियां वो ख़ुद अपनी चिट्ठी से काट चुका था।
आज के रिपोर्ट में रोहित के पक्ष की एक आवाज़ कह रही थी कि हो सकता है पिता ओबीसी हों लेकिन उनका जीवन दलित जैसा था, जीवन के संघर्ष दलितों वाला था। हो सकता है रोहित वेमुला रहता तो इस दलील की विडंबना पढ़ पाता। ग़ैर-दलित परिवार में पैदा होकर भी कोई दलित हो सकता है ? जो वैसी ही विडंबना है जो कांग्रेस-बीजेपी की कोशिशों में है, जो एक तरफ़ तो ख़ुद को दलितों के सबसे बड़े हमदर्द के तौर पर सेल्फ़ अटेस्ट भी करना चाहते हैं लेकिन साथ में अब अगड़ों को आरक्षण दिलवाने में भी लगे हुए हैं।
ये सब देखकर आज लग रहा है कि रोहित स्थिति को कहीं बेहतर तरीक़े से पढ़ पाया था, बुद्धिजीवी या राजनीतिज्ञ जिस सच्चाई को हम सबसे छुपा कर रखना चाहते हैं, रोहित ने अपनी कम उम्र में ना सिर्फ़ उसे महसूस किया था, बल्कि परिपक्वता से लिख भी पाया। त्रासदी ये भी है कि ऐसी विलक्षण चिट्ठी उसके जीवन की आख़िरी लेखनी थी। हाल के तमाम विरोधाभासी दलीलों और शख्सियतों को देखकर रोहित वेमुला की चिट्ठी की वही पंक्तियां मुझे बार बार याद आती रही हैं। अपनी वैचारिक स्पष्टता की वजह से भी और इसलिए भी क्योंकि ख़ुद उसके मामले में वो भविष्यवाणी का काम कर रही हैं। आज के वक़्त की शायद सबसे बड़ी सच्चाई । रोहित ने लिखा था “ मनुष्य का मूल्य उसकी तात्कालिक पहचान, निकटतम संभावना में आंका जाता है। एक वोट, एक अंक, एक वस्तु में। कभी भी मनुष्य को एक मानस या बुद्धि के तौर पर नहीं आंका जाता है, जो सितारों के कण से बना है। हर क्षेत्र में, शिक्षा में, सड़कों पर, राजनीति में, मरने में और जीने में ।”
रोहित वेमुला को शायद अंदाज़ा था कि लड़ाई लंबी चलने वाली है, इसीलिए लिखा था अंतिम यात्रा शांतिपूर्वक निकले। उसने शायद पहले देख लिया था कि उसे एक बुद्धि, एक मानस या किसी संभावना से काट कर उसका मूल्य एक दलित छात्र माना जाएगा, जिसे एक पक्ष गाढ़ा करेगा दूसरा पक्ष नकारेगा। उसने शायद ये समझ लिया था के उसके डेथ सर्टिफ़िकेट से ज़्यादा अहम कास्ट सर्टिफ़िकेट होने वाला है।
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