इस म्यूज़ियम में घूम कर लगा कि गाड़ियों के बारे में हम जैसा सोचते हैं, महसूस करते हैं वो किसी आम यूरोपियन से कितना अलग होता है। क्योंकि कुछ राजा-महाराजाओं को छोड़ दें तो ज़्यादातर हिंदुस्तानियों के लिए कार उनके सेंसिबिलिटी का हिस्सा बनी एंबैसेडर, फ़िएट और मारुति 800 के बाद। जिनमें से तीनों अपने शाश्वत रंग-रूप में जैसी थीं वैसी ही रहीं। जबकि यूरोप में लोगों ने कारों को एक एक क़दम बढ़ाते देखा है। बड़ी से बड़ी चीज़ें जैसे इंजिन और सुरक्षा से लेकर छोटे-छोटे बदलाव, लैंप और मडफ़्लैप तक। और ये किसी भी कुंठा के तहत की गई तुलना नहीं थी, एक ऑब्ज़र्वेशन था, क्योंकि हमने गाड़ियों के विकास का एक दूसरा ही साइकिल देखा है।
अगर अाप चकित नहीं हो रहे तो फिर चेकअप की ज़रूरत है…
भूमिका पार्ट-1: चकित होने का भाव कैसे आता है ? मेरे हिसाब से ये प्रोसेस कुछ ऐसा होता है…मन को कुछ अच्छा लगता है, जिसे वो चुनता है और फिर उस चाकित्य के विषय के बारे में दिमाग़ जानकारियां इकट्ठा करने लगता है, और विषय की जटिलता और सादगी के आयाम को जोख कर मेरे चकित होने की इंटेसिटी तय होती है। शायद ऐसा ही कुछ होता है।
मेरे लिए क्यों अहम है, आप अगर ये सवाल करें, तो मैं कहूंगा कि हम सबके लिए है। एक संवेदना जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी के लिए काफ़ी ज़रूरी है, मुझे लगता है कि ये हमें अपने अंदर के बच्चे को जगाए रखने में मदद करता है, मन फ्रेश रहता है । और इसी सोच से तय एजेंडा के तहत हर दिन नई-नई चीज़ों से चकित होता रहता हूं, कई बार बलधकेल कई बार अनायास।
भूमिका पार्ट-2: ईमानदारी से कहूं गाड़ियों की दुनिया से इतने साल से जुड़ा हूं, लेकिन हाल-फ़िलहाल में नई गाडियों को देखकर चकित होने की फ्रीक्वेंसी मेरी काफ़ी कम होती जा रही थी। जिस पर पहला रिएक्शन तो मेरा ये था कि उम्र जब तीस पार हो जाती है तो मन का सीपीयू स्लो हो जाता है। हो सकता है ऐसा हुआ हो, लेकिन एक और बड़ी वजह लगी बाद में ( यक़ीन मानिए उम्र को झुठलाने के लिए बहाना नही है ये) ।
आज की तारीख़ में जब हम नई गाड़ी की बात करते हैं तो उसके नएपन का पैमाना क्या होता है। दरअसल पैमाने और नमूने में बहुत दूरी नहीं होती। जैसे पिछले मॉडल और नए मॉडल के बीच में नएपन का भेद। पिछले का फ्रंट ग्रिल टेढ़ा था, तो नए का मेढ़ा। पुराना स्टीयरिंग षटकोणीय था तो नया अष्टावक्र। पिछले की माइलेज 16.00000 थी तो नया मॉडल दे रहा है 16.0547579 किमी प्रति लीटर। और बीएचपी में 0.6789 का अभूतपूर्व उछाल। इस कार में सीट 56 एंगिल से मुड़ती है तो पिछले मे 32 एंगिल से । पहले 2 एयरबैग अब 90 एयरबैग, पहले सीट पर मसाज की सुविधा थी तो इस मॉडल में आपकी पीठ खुजलाने की भी सुविधा है। मोटरसाइकिलों में तो पूछिए ही मत। कंपनियों की माने तो हर एक नए स्टिकर से बाइक की माइलेज दुगनी और रफ़्तार तिगुनी होती जा रही है। बदलाव के नाम पर स्टिकर्स, कुछ और स्टिकर्स, जगह बच गई तो फ़ेयरिंग, एलईडी लाइट, मेंहदी, चंदन का लेप और थोड़ा आंवला। अद्भुत।
ईमानदारी से कहूं कि इन सब का लेखाजोखा देते हुए ख़ुद को ऑटोमोबील पत्रकार से ज़्यादा मुनीम महसूस करता हूं। और ये एक बड़ी वजह है नो-सरप्राइज़ सिंड्रोम की। सालों से गाड़ियों की दुनिया में हम इंप्रोवाइज़ेशन देख रहे हैं, क्रांतिकारी इंवेशन नहीं। और भारत में तो इस असेंबली लाइन मानसिकता आजकल कुछ ज़्यादा ही दिख रही है।
मुद्दा : हुआ यों कि मैं पहुंचा हुआ था मर्सेडीज़ के म्यूज़ियम में । वहां पर खड़ी थी दुनिया की पहली ऑटोमोबील। सवा सौ साल पहले कैसी गाड़ी बनी थी ये देखकर चकित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था मेरे पास। गोटलीब डेमलर और कार्ल बेंज़ की बनाई गाड़ियों को देखकर मज़ा आता है, पहली नज़र में लगता है कि कोई छोटी बग्घी है जिसके घोड़े कहीं बांधे गए हैं। इंजिन का आकार इतना बड़ा, स्टीयरिंग की जगह। सबकुछ मज़ेदार।
साथ में ये जानना कि दुनिया की पहली लॉरी जब तैयार की थी डेमलर कंपनी ने तो उसका काम क्या था। जो तस्वीर थी वो तो बता रही थी बियर का ट्रांसपोर्टेशन । जिसे देखकर अचानक मौजूद सभी लोगो में ताज़गी की लहर दौड़ गई ।
फिर चकित हुआ उस मड फ़्लैप को देखकर जो कि लगी थी एक कार में पहली बार। जिससे कि पहिए से कीचड़ उछलकर ना लगे। वहीं मौजूद जर्मन कैमरापर्सन जिसका नाम था हैरल्ड उसने बड़ी दिलचस्प बात बताई, जर्मन अभी भी मडफ़्लैप के लिए जो शब्द इस्तेमाल करते हैं उसका मतलब है घोड़े की लीद से बचाने वाली पट्टी ।
इन्हीं सभी गाड़ियों को देखते हुए एक वक्त ऐसा आया जब मन में सेकेंड के आधे हिस्से में ही गाड़ियों के सवा सौ साल के सफ़र की पूरी फ़िल्म गुज़र जाती है। तमाम रोल्स, मर्सेडीज़, फेरारी और नैनो, सामने से आकर निकल जाते हैं, बताते हुए कि हमने एक लंबा सफ़र तय किया है, लंबी कहानी है ये, लेकिन पिक्चर अभी बाकी है।
(किसी एयरपोर्ट या किसी वेटिंग हॉल में आया क्रिएटीविटी का झोंका)
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