हमारे नेता वैसे ही होते हैं जैसे हम होते हैं ।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ग़लती ये नहीं थी कि वो पुलिसकर्मियों की गोद में बैठकर बाढ़ प्रभावित इलाक़े का दौरा करने के लिए गए थे, जिस प्रकरण ने सोशल मीडिया को व्यंग्य की अच्छी ख़ुराक दे दी। किसी ने लिखा “हवाई सर्वेक्षण कर रहे मुख्यमंत्री” किसी ने लिखा “विसर्जन के लिए मुख्यमंत्री को ले जाते कार्यकर्ता” या फिर “अबकी बार-गोदी सरकार” जैसी चुटीली टिप्पणियां । बहुत से हमदर्दों के हिसाब से ग़लती ये थी कि स्टेट की पीआर मशीनरी कौन सी तस्वीरें मीडिया में छोड़ रही है इसका ध्यान नहीं रखा गया। जिसे एक हद तक सही कह सकते हैं। मुख्यमंत्री की ग़लती ये नही थी कि वो अपने खड़ाऊं का मोह छोड़ नहीं पाए थे। ऐसे ही मोह में पड़े एक और शिवराज थे। पाटिल साहब। वो अपने जूते को बचाते हुए उछले-उचके थे, ख़ासकर जब उनकी पार्टी की अध्यक्षा सीधे आगे बढ़ गई थीं। ख़ैर । मुख्यमंत्री की ये भी ग़लती नहीं थी कि इस दौरे में उन्होंने अपने मातहत को अपने जूते उठाने के लिए दे दिए थे। ग़लती सिर्फ़ ये थी कि उन्होंने ये सब ऑन रिकॉर्ड किया। बवाल मच गया, क्योंकि ऑफ़ रिकॉर्ड तो ये सब अपने समाज में मान्य है ही।
ऑन रिकॉर्ड हुआ तो हम आहत हैं, मंत्रियों के फ़्यूडल माइंडसेट पर यंग्य करते पोस्ट और ट्वीट का तांता लगा है। मैंने भी किया है। इससे होता ये है कि ऐसी आलोचना से एक कांफ़िडेंस आता है, अपनी कुंठा कम होती है, हम अपने पाखंड को दिलासा देते हैं कि हम इन नेताओं से बेहतर है। ज़्यादा बराबरी पसंद हैं। ज़्यादा संवेदनशील हैं। तो शिवराज चौहान हों या महेश शर्मा उनकी आलोचना करके हिंदुस्तानी पाखंड ख़ुद को थोड़ा और सहलाता-पुचकारता है। ये नेता दरअसल हमारे लिए एक मोरल कुशन होते हैं, जिस पर हम अपने मुक्के चलाकर अपने भीतर गुंथे-धंसे पावर लोलुपता या फ़्यूडल सोच को नकार सकें। जिससे कि हम कह सकें कि देखो मेरे फेसबुक पोस्ट, मैं तो सामाजिक बराबरी में विश्वास करता हूँ। जबकि ये दावा कितना खोखला है ये हम सब जानते है। कैमरे और हेडलाइन से दूर हमारी असल ज़िंदगी में, हम भी वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा मंत्री लोग करते हैं। धौंस जमाने की कोई कसर नहीं छोड़ते, जहां भी बस चले। चाहे अपने से ग़रीब हों, नीचे पोस्ट वाले हों, ख़ुद से छोटी गाड़ी वाले हों, अपने से ख़राब अंग्रेज़ी बोलने वाले से या फिर अपने से कमतर पढ़े-लिखे पर। सिक्यूरिटी गार्ड, आयरन वाला, घर में काम करने वाला, ड्राइवर, गाड़ी साफ़ करने वाला हो या फिर ढाबों पर चाय लाने वाला किशोर, पार्किंग वाला सब पर धौंस जमाते हैं। मॉल में सेल्समैन पर नहीं चलेगा तो सब्ज़ी वाले पर, फ़ाइव स्टार के मैनेजर पर नहीं तो दरबान पर। बॉस पर ना चले तो चपरासी पर। एसयूवी वाला कार वाले को गरियाएगा, बड़ी कार वाला छोटी कार वाले को, ऑल्टो वाला ऑटो वाले पर चिल्लाएगा और वो साइकिल रिक्शा वाले को। और ये सब गरियाएंगे पैदल चलने वालों को।ऑफ़िस में जूनियर सर ना बोले तो सीनियर कलप जाएगा, चाय-कॉफ़ी लाने से मना कर दे तो दांत कटकटाएगा। दरअसल हम सबके भीतर वो नेता छुपा हुआ है जो ढूँढता रहता है कि कौन मेरा जूता उठाएगा।
अपने से कमतर मानते है उस पर धौंस जमाना हिंदुस्तानियों को इतना स्वाभाविक लगता है कि ऐसा करने से पहले सौ ग्राम हिचक भी नहीं होती। नहीं तो सोचिए आज के वक्त में जब राजनीति केवल प्रतीकों और इमेज में सीमित हो चुकी है, तब कोई मुख्यमंत्री कैसे गोदी में बैठ कर हवाई सर्वेक्षण पर जाता है, अपने अधिकारी से जूते उठवाता है और वही तस्वीरें प्रसारित भी करवाई जाती हैं। मतलब इसका यही है कि हायरआर्की कहें या ब्यूरोक्रेसी के नाम पर राजशाही अपनी मानसिकता के इतने भीतर गुंथी हुई है कि पूरी मशीनरी को इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं रहा कि इन तस्वीरों का क्या अर्थ होगा ? होगी भी कैसे, अभी भी हम कलेक्टर को किसी ज़िले के राजा के तौर पर ही संबोधित करते गौरवान्वित महसूस करते हैं। नायक महानायक को बादशाह शहंशाह पुकारते हैं। ज़ाहिर है जिसे मौक़ा मिलता है वही रजवाड़ा खड़ा कर लेता है। हाल में एक उत्तर प्रदेश का फुटेज देखा ही होगा जहां पर एक थानेदार खटिया पर लेटा है और एक बूढ़ा फरियादी जो रिपोर्ट लिखावाने आया था वो थानेदार के पांव दबा रहा था। और ये प्रवृत्ति हम सब को स्वीकार्य है। समस्या तब होती है जब ये ऑन कैमरा आ जाता है, हम मौरेलिटी की दुविधा में फंस जाते हैं। जिससे निकलने का बेस्ट तरीका होता है कि नेताओं को गरिया दें ।
एक वरिष्ठ कुलीन सज्जन की याद आ रही है, सामाजिक बराबरी के बड़े पैरोकार हैं। वैसे ही कुछ टिप्स शायद मुझे भी दे रहे थे। देते देते बात करते हुए एक सार्वजनिक बेंच पर हम बैठने वाले थे, तभी वरिष्ठ ने इशारा कर, वहां पहले से बैठे शख़्स को हटा दिया। वो कारीगर या मज़दूर टाइप का था जो पास में चल रहे अपने काम से ब्रेक ले रहा था। मैं सोच में पड़ा कि क्या हो सकता है ये। क्यों हटाया उसे ? उसकी जात तो पता भी नहीं थी।
ये पाखंड सर्वव्यापी है। शहरों में तो जात-पात का अंतर तो पॉलिटिकली इनकरेक्ट हो जाता है लेकिन अंदर की सच्चाई छोटे छोटे हरकतों में दिखती है। रोज़मर्रा की आदतों में। वो भी इतने गहरे तक धंसे ये संस्कार हैं कि नेताओं को गरियाने के वक़्त ये हम भूल जाते हैं कि हमारे नेता वैसे ही होते हैं जैसे हम होते हैं।
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