क्या पॉपकॉर्न फ़िल्मों की जान ले रहा है ?
इस सवाल का कोई गहरा मतलब नहीं, पॉपकॉर्न से मेरा मतलब आज की संस्कृति नहीं है और फ़िल्मों की जान ख़तरे में है कोई समाजशास्त्रीय चिंता नहीं है। सवाल राजनैतिक भी नहीं, कि कोई नेता फ़िल्मी है और किसी पॉपकॉर्नी नेता से उसे जान का ख़तरा है । ये बहुत ही सिंपल सवाल है कि क्या भारत के मल्टीप्लेक्सों में मिलने वाले पॉपकॉर्न-कॉंबो फ़िल्मों का दम घोंट रहे हैं ?
तो अब आगे बढ़ते हैं।
आख़िरकार कल छुट्टी के दिन जाकर देख ही ली मैंने नई वाली जेसन बोर्न फ़िल्म। अगर आप किसी भी सोशल मीडिया पर मुझे फ़ोलो करते हैं तो समझ पाएंगे कि मैं इस सीरीज़ का फ़ैन हूँ, और इसका इंतज़ार कर रहा था काफ़ी दिनों से। दरअसल इस फ़िल्म में मैट डेमन फिर से आ रहे थे । सीरीज़ की पांचवी फ़िल्म लेकिन पिछली वाली में उनकी जगह कोई जेरेमी नाम के हीरो आ गए थे । तो ये ब्रेक के बाद की वापसी थी। अगर आपको ऐक्शन फ़िल्में पसंद हैं तो मैं कहूंगा कि ज़रूर देखिएगा शुरूआती तीनों फ़िल्में। मज़े की बात ये होती है कि सबटाइटल की ज़रूरत भी ज़्यादा नहीं होती है, क्योंक क्विंटन टैरंटीनो की फ़िल्मों से उलट, बोर्न सीरीज़ में एक्शन सीन्स के बीच में कुछ डायलॉग होतें हैं। टैरंटीनो की फ़िल्मों में तो डायलॉग पर डायलॉग होते हैं और बीच में दो-तीन दर्ज़न हत्याएं हो जाती हैं, लेकिन उनके बारे में फिर कभी।
तो इसी कमबैक को देखने मैं टिकट कटा कर पहुंच गया आईमैक्स स्क्रीन में देखने के लिए। और आज जब ये ब्लॉग लिख रहा हूं तो फ़िल्म का रिव्यू देना नहीं है, उस चिंता को आपके साथ बांटना है जो मुझे हाल में कई फ़िल्मों को देखने के वक़्त या उसके बाद होती रही है। जिसे अगर एक वाक्य में कहूं तो मुझे ऐसा सा लग रहा है कि पॉपकॉर्न फ़िल्मों की हत्या कर रहा है।
क्यों ? बताता हूं।
असल सिनेमा की टिकटों की आम क़ीमतें (कमसेकम एनसीआर में ) दो-तीन सौ से पांच-छह सौ रु तक दिखती हैं। रिक्लाइनर वाली क़ीमतें तो शायद हज़ार-डेढ़ हज़ार तक जाती हैं ? ये क़ीमतें महंगाई के हिसाब से ठीक-ठाक कही जा सकती हैं, लेकिन हार्ट-अटैक की पहली क़िश्त तब आती है जब पॉपकॉर्न खाने का मन करता है और आप काउंटर पर जाते हैं। रेगुलर से लेकर लार्ज तक। दो-सवा दो सौ से लेकर तीन सौ रुपए से ऊपर की क़ीमत। अगर साथ में कॉंबो लेने की सोचें तो फिर हार्ट अटैक की दूसरी किश्त (वैसे साथ में मिलने वाले सॉफ़्ट ड्रिंक में मिली चीनी से डाइबिटीज़ फ़्री मिलेगा, ख़ैर)। कल ही देख रहा था कॉंबो की क़ीमत तो साढ़े तीन सौ से सवा चार सौ रु तक । हो सकता है इससे ऊपर भी हो। पॉकेट में सिर्फ़ उतने पैसे थे कि पॉपकॉर्न लेकर निकल आया। सोचिए अगर साथ में पूरा परिवार हो, या साथ में दो बच्चे ही हों तो क्या होगा ? सिनेमा थिएटर महंगे रेस्टोरैंट बन गए हैं, जहां फ़ास्ट फ़ूड मिलता है।
इन सबके लिए एक नया टर्म आया है। मूवी इज़ एन एक्सपीरिएंस , यानि फ़िल्म देखना एक अनुभव है। चलिए ‘एक्सपीरिएंस’ का बिज़नेस मॉडल तो ठीक है, लेकिन उनका क्या जिनका शौक़ है। इसी सोच पर पहले भी सोचता रहा हूं तो सोचा कि बाक़ी मित्रों से भी पूछा जाए। तो इस बार मैंने अपनी स्कूली दोस्तों से पूछा जो देश से बाहर रहते हैं। कनाडा से मित्र ने बताया कि 14 डॉलर फ़िल्म के टिकट और रेगुलर कॉंबो 8 डॉलर। अमेरिका से मित्र ने बताया कि बड़े के लिए 12 डॉलर का टिकट और बच्चों के लिए 10 डॉलर का टिकट। ऑस्ट्रेलिया से मित्र ने बताया कि टिकट 22 डॉलर के लगभग और पॉपकॉर्न 8 -10 डॉलर। वैसे अमेरिकी मित्र ने तो ये भी बताया कि अब सभी सीटें वहां पर रिक्लाइनर वाली हो गई हैं, यानि कैटल क्लास भी । लेकिन उस क्लास कि चर्चा छोड़िए, नेताओं के ज़ख़्म उभरेंगे।
वैसे इन क़ीमतों को रुपयों में कन्वर्ट मत कीजिएगा (मुझे पता है आपमें से ज़्यादातर कर चुके होंगे।)। ये सिर्फ़ औसत देखने के लिए था। तीनों जगहों पर टिकट से आधी क़ीमत पर पॉपकॉर्न है। लेकिन भारत में ? अब फ़िल्म इंडस्ट्री का अर्थशास्त्र तो नहीं जानता लेकिन आम दर्शक के हिसाब से तो यही सोच सकता हूं कि अगर टिकट की दरों और पॉपकॉर्न की क़ीमतों के हिसाब से अगर सुल्तान या थ्री इडिएट्स सौ करोड़ रुपए कमाई करती है तो फिर मल्टीप्लेक्स की कमाई कमसेकम दो सौ करोड़ की तो होगी ?
अब हो सकता है ये समस्या मुझे इसलिए हो रही है क्योंकि मैं सात रुपए की टिकट ख़रीद कर चाणक्या सिनेमा हॉल में लाइन लगा के खड़ा रहता था। लेकिन क्या मल्टीप्लेक्सवाले ये सोचने लगे हैं कि जनता तो डाउनलोड करके ही देखेगी, जो हॉल तक आए उसी से वसूल कर लो।
क़ीमतों का ये मकड़जाल इन बिग बजट फ़िल्मों और हाईएंड दर्शकों के लिए नहीं है। बड़े स्टार या बजट वाली फ़िल्मों के लिए तो आमतौर लोग जाएंगे ही, सुना है ये ईवेंट फ़िल्में कहलाती हैं इंडस्ट्री में, साल भर की वो चुनिंदा फ़िल्में जिसका महीनों से इंतज़ार होता है, लोग रिक्लाइनर वाली सीटें भी बुक कराते हैं, फ़िल्म अच्छी हो या बुरी, ये एक वीकेंड के लिए भुला दिया जाता है। चाहे कबाली हो या फिर सुल्तान। लेकिन सवाल तो उन फ़िल्मों का है ही नहीं। ऐसी फ़िल्में भी तो होती हैं महागाथा नहीं होती ? विनय पाठक-रजत कपूर जैसी जोड़ियों की फ़िल्मों को शायद उस कैटगरी में रख सकते हैं? उनके लिए क्या एक परिवार दो से तीन हज़ार रु ख़र्च करने की सोचेगा ? शायद नहीं। वो फ़िल्में भी तो होती हैं जिनका ट्रेलर नहीं चलता, एमटीवी पर एड नहीं आता, हनी सिंह टाइटल सौंग नहीं गाता, जिसके सीन्स को लेकर कोई धार्मिक संगठन बवाल नहीं करता, जिसके संस्कार सवालिया नहीं होते? ऐसी फ़िल्मों को भी तो देखने वाले होते हैं।
वहीं ये पूरा समीकरण फ़िल्म के उन शौक़ीनों को फ़्रस्टियाने के लिए भी काफ़ी है जो महीने में एक नहीं, आठ नई फ़िल्में देखना चाहते हैं, थोड़ी सुविधा के साथ, थोड़े पॉपकॉर्न फांकते हुए, जिनकी ईएमआई चल रही होती है, जिनके पास फ़िल्मों के लिए महीने में आठ से दस हज़ार का बजट नहीं है और…जिनके भीतर फ़िल्म डाउनलोड करने को लेकर थोड़ी नैतिक दुविधा भी है।
वैसे सिंगल थिएटरों के साथ समस्या अब ये है कि शहर के उन हिस्सों में हैं जहां पर उन तक पहुंचना थोड़ा मुश्किल है और पार्किंग की समस्या की तो बात मत कीजिए।
शायद इन्हीं सच्चाईयो को देखते हुए कई हाउसिंग सोसाइटी अब प्राइवेट मिनी थिएटर बना रहे हैं, कुछेक दर्ज़न सीटों के साथ आप बड़े स्क्रीन पर फ़िल्म की प्राइवेट स्क्रीनिंग करवा सकते हैं। अभी तो ये कुछेक हाई-एंड सोसाइटी में ऐसे थिएटर बन रहे हैं, सोचिए अगर बड़े पैमाने पर होगा तो क्या होगा ? आपको नहीं लगता है कि जिस एक्सपीरिएंस को बेचने का दावा मल्टीप्लेक्स करते हैं उसपर उनका दावा कब तक रहेगा ?
चलिए अगर कोई अभी तक इस ब्लॉग को पढ़ रहा है कि और अगर ये सोच रहा है कि मैं ख़ाली रोना ही रो रहा हूं कि कोई समाधान भी है तो उनके लिए बता दूं कि मैं ये सुझाव दे रहा हूं कि मल्टीप्लेक्सों में अब अपना खाना अलाउ करना चाहिए। पूड़ी-आलू भुजिया अलाउ कीजिए, रिक्लाइनर वाली सीट पर लेट कर मैं हर वीकेंड फ़िल्म देखते पाया जाउंगा। या फिर लिट्टी-चोखा ही अलाउ कर दे सरकार।
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