भारत-पाकिस्तान की इस सुरीली लड़ाई में क्यों भारी पड़ा पाकिस्तान ?
कुछ साल पहले से ये बहस शुरू हुई थी। वैसे शुरु होने से पहले ही शायद ख़त्म भी हो गई थी। बहस ये कि पाकिस्तान वाला कोक स्टूडियो अच्छा हे या फिर भारत वाला। अब ये बहस भारत बनाम पाकिस्तान वाले किसी और बहस के जैसा तो है नहीं। क्रिकेट या न्यूक्लियर हथियार वाली बहस के बराबर बिल्कुल नहीं। ये बहस आक्रामक नहीं सांगीतिक है, कर्कश नहीं सुरीली है, भारत और पाकिस्तान के आर -पार होने के बावजूद। असल संगीतप्रेमी मोटे तौर पर जुगलबंदी में यक़ीन करता है मल्लयुद्ध में नहीं। यूट्यूब पर जाइएगा तो पता चलेगा कि म्यूज़िक ही वो हिस्सा या सेक्शन होगा जिसके कामेंट सेक्शन में गालियां कम मिलेंगी, प्यार भरे संदेश ज़्यादा दिखेंगे। कोई पाकिस्तानी किसी हिंदुस्तानी कलाकार के वीडियो पर कामेंट लिखता है लव फ़्रॉम पाकिस्तान और कभी हिंदुस्तानी लिखेगा, लव फ़्रॉम इंडिया। ख़ैर ।
सबसे बड़ा मुद्दा तो ये भी कि ऑरिजिनल तो पाकिस्तानी कोक स्टूडियो ही है जिसे रोहेल हयात ने शुरू किया था। वहीं से यूट्यूब पर वो प्रोग्राम किंवदंती बनी है, जिस लोकप्रियता की वजह से उसे भारत लाया गया। उस मुक़ाम पर पहुँचने में भारतीय कोक स्टूडियो को तो वक़्त लगेगा ही। वैसे दोनों पार के कोक स्टूडियो की तुलना के बहाने भारत-पाकिस्तान की बहस जितनी भी गर्म हो, आबिदा परवीन और राहत फ़तह अली को “मन कुंतो मौला” गाते सुनते हैं तो सुकून पाते हैं। ज़ेब-हानिया को सुनते हैं तो लगता है ये किसी मीठी भाषा में गा रही हैं। नूरी बैंड का “सारी-सारी रात” सुनते हैं तो लगता है कि दक्षिण एशिया में म्यूज़िक अरेंजमेंट दरअसल वर्ल्ड क्लास तो कब का पहुँच चुका है। फिर उन्हीं की “होर भी नीवन” सुनते हैं तो लगता है कि इस उम्र और इस वक़्त के नौजवान ऐसी सूफ़ी तासीर कैसे ला पाते हैं। एक असल दरवेश सा दिखने वाले सलीन ज़हूर की हूक उठती है तो पूरी दुनिया से एक अपनापन सा लगने लगता है। मैं ये सब शायद इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि पूरी सीरीज़ मेरी सबसे पसंदीदा रही है औऱ इसलिए भी क्योंकि पारंपरिक शास्त्रीय, लोकसंगीत के साथ मॉडर्न अरेंजमेंट और वाद्ययंत्र एक ऐसा मेल है जो मैं भारतीय नॉन फ़िल्मी दुनिया में मिस कर रहा हूँ। जहां नब्बे के दशक से बहुत कम प्रयोग दिख रहे हैं।
भारतीय कोक स्टूडियो की एक समस्या तो साफ़ है , बॉलीवुड का संगीत। अब वो इतना ज़्यादा हावी हो चुका है कि उसके सामने इंडिपेंडेंट प्रोजेक्ट की कोई हैसियत नहीं लगती है। वहीं बॉलीवुड की समस्या ये है कि फ़ॉर्मूला के अलावा कुछ स्वीकार नहीं। आज के फ़ॉर्मूले को देखें तो या तो अरिजीत सिंह मार्का म्यूज़िक मिलेगा नहीं तो हनी सिंह।फिर छोटा सा काउंटर सूफ़ी का राहत या रेखा भारद्वाज के साथ। आप किसी एक कलाकार के साउंडट्रैक को हटाकर दूसरे को रिप्लेस कर दें गाना एक ही जैसा साउंड करेगा। वही हाल हिंदी रैप का है। सब हनी सिंह मार्का संगीत दे रहे हैं। बॉलीवुड इतना फ़ार्मूलामय है कि एक्सपेरिमेंट भी एक फ़ॉर्मूला है। ठुमरी या कुछ क्लासिकल की झलक तभी ही मिलेगी जब तक संजय लीला भंसाली बाजीराव को उनकी पत्नी के साथ नहाते हुए प्रणय मुद्रा में ना दिखाएं।
जब स्थिति ऐसी हो तो अलग से संगीत के पनपने में कुछ बड़ी कोशिशों की ही ज़रूरत है। कुछेक संगीतकार ने बहुत अच्छे एपिसोड बनाए, अमित त्रिवेदी, पापोन, राम संपत, क्लिंटन जैसे। जिनमें कुछ तो बहुत यादगार हैं, शानदार हैं। कुछ मौलिक हैं, कुछ पारंपरिक, सूफ़ी और क़व्वाली भी हैं । लेकिन, ज़्यादातर हिंदुस्तानी कोक स्टूडियो बॉलिवुडिया संगीत की छाया से निकल नहीं पाया है।
वहीं एक और पहलू है जो पूरे भारतीय संगीत की चुनौती लग रही है वो भारतीय शास्त्रीय संगीत की शास्त्रीयता। कला जो आम लोगों से दूर होता गया है, इलीट के दायरे में किडनैप हो रहा है। पाकिस्तानी एपिसोड में जब आप देखें तो लगेगा कि शास्त्रीयता बहुत सहज तरीक़े से आती है, फ़रीद अयाज़ की हरक़तें आपको प्रेरित करती हैं वैसे आलाप लेने के लिए। वहीं भारत में बहुत हुई तो उस्ताद राशीद ख़ान से जब वी मेट वाली ठुमरी गवा ली जाती है। और ये मैं केवल किसी एक कार्यक्रम के सिलसिले में नहीं कह रहा हूँ। मुझे लगता है कि शास्त्रीय संगीत (दोनों ही शास्त्रीय) के बिना ऐसा कोई भी कार्यक्रम मुक़म्मल नहीं हो सकता। लेकिन उस ख़ुराक में थोड़ी कमी है। पता नहीं वजह क्या है लेकिन अपने बड़े-बड़े पंडितों और उस्तादों को विदेशी संगीतकारों के साथ जुगलबंदी करते तो देखा है लेकिन पता नहीं क्यों भारतीय संगीतकारों के साथ बहुत कम। बड़े ग़ुलाम अली साहब मुग़लेआज़म में गाने को लेकर कितने उदासीन थे इसके दिलचस्प क़िस्से इंटरनेट पर मिल जाएंगे। उस वक़्त के लिए आदर्श स्थिति होगी, कला की शुद्धता-शुचिता ज़्यादा अहम होती है।लेकिन आज की तारीख़ में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत इतना इलीटिस्ट हो गया है कि आम लोगों से कितना दूर चला गया है। बड़े-बड़े हॉल में, महंगे टिकट वाले, अंग्रेज़ी आमंत्रण पत्र वाले कार्यक्रम में, विदेशी इत्र लगाकर, संगीत सुनते हैं और अंग्रेज़ी में उसकी विवेचना करते हैं। एक्सक्लूसिव सीटों पर बैठ कर या फिर किसी प्राइवेट बैठकों में बड़े बड़े संगीतकारों को सुनते हैं। ख़ैर वो तो सरकारों का काम है कि संगीत को HIG से LIG कॉलनियों में भी ले जाए।जिससे ये ना कहना पड़े की आज की जेनरेशन तो क्लासिकल सुनती ही नहीं, उसे दिलचस्पी ही नहीं। अरे भई आप बच्चों के रिएलटी शो में देखिए बच्चे कैसे सुर लगा रहे हैं।
ख़ैर इस कार्यक्रम की बात करें तो पता नहीं कि वजह क्या है , कलाकार अपने घराने बचाने में जुटे हैं या फिर संगीतकार अपने पैसे, कोक स्टूडियो या कोई भी और भारतीय संगीत कार्यक्रम तब तक मुकम्मल नहीं होगा जब तक कि शास्त्रीय कलाकारों का और इस्तेमाल नहीं होगा। फिर से कहूँगा, हिंदुस्तानी हो या कर्नाटक शास्त्रीय। या ये भी हो सकता है हमारे पंडित और उस्ताद की फ़ीस भी बहुत ज़्यादा हो ? पता नहीं।
वैसे आख़िर में ये ज़रूर कहना चाहूँगा, हालांकि पता नहीं किसी देश के बारे में ऐसा कहना ठीक होगा या नहीं। ज्ञानी पत्रकार तो नहीं हूँ, उस देश के बारे में बाक़ियों से बहुत कम जानता हूँ, लेकिन कई बार ये लगता है कि फ़ैज़, फ़राज़, मेहँदी हसन, नुसरत, आबिदा, फ़रीदा ख़ानम और गुलाम अली ना होते तो देश पता नहीं ख़ुद को जस्टीफ़ाई कैसे करता। अब कोक स्टूडियो भी वही कर रहा है। वो अपने देश को डिफाइन कर रहा हे।
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