ट्रैफ़िक कंजेशन- क्या बड़े शहरों से तिपहिया, ऑटो रिक्शा हटाने का वक़्त आ गया है ?
इंटरनेट पर TCI यानि ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया और आईआईएम कोलकाता के द्वारा किए गए एक रिपोर्ट मिला जो बता रहा है कि देश में हर साल, ट्रैफ़िक कंजेशन की वजह से होने वाली देरी से 21 अरब डॉलर से ऊपर का नुक़सान होता है। इसे फिर से इंटरनेट पर ही रुपए में कनवर्ट किया तो पता चला कि ये नुक़सान है 1465 अरब रुपए का है। इसमें से 14.7 बिलियन डॉलर यानि 983 अरब रुपए से ऊपर का नुक़सान सिर्फ़ एक्स्ट्रा जलने वाला तेल का ख़र्च है। अब ये नुक़सान किसी एक क़दम से तो कम होगा नहीं, एक एक क़दम से ही होगी। कुछ ना कुछ तो जल्द करना पड़ेगा ना ?
तो इस रिपोर्ट को देखकर कई बातें दिमाग़ में आई। जिनमें से एक आज बांटता हूँ। वो ये कि क्यों नहीं दिल्ली की बड़ी सड़कों से, देश के बाक़ी तेज़ रफ़्तार ट्रैफ़िक वाली सड़कों से तीन पहियों को हटा देती सरकारें। जैसे दिल्ली के रिंग रोड से तो ज़रूर ही। हो सके तो बाक़ी मेट्रो शहरों से भी। जो ऑटो सवारियों के ढोने के लिए इस्तेमाल होते हैं वो और जो सामान ढोने के लिए इस्तेमाल होते हैं वो भी। अब वक़्त आ गया है जब इन तिपहियों को हटा देना चाहिए। अगर आप सोच रहे हैं कि प्रपोज़ल के पीछे वजह क्या है तो आगे पढ़िए। वैसे बहुत से पाठक इस पूर्वाग्रह से भी प्रेरित हो सकते हैं कि मैं तेज़ रफ़्तार सुपरकारों और सुपरबाइक्स के लिए जगह बनाने के लिए ऐसा कह रहा हूँ। एक हद तक ये पूर्वाग्रह सही भी हो सकता है क्योंकि मैं इतने सालों से रफ़्तार प्रोग्राम कर रहा हूँ कि ये छवि बन सकती है। बल्कि ये एक वजह रही कि मैं इस मुद्दे पर इतने वक़्त से सोचने के बावजूद लिख नहीं रहा था, क्योंकि मेरे प्रस्ताव से लगता कि मैं टाटा मोटर्स और बजाज के लिए फ़ील्डिंग बिछा रहा हूँ ( ये दोनों कंपनी क्यों, इस पर आख़िर में बात)। पर पिछले कुछ दिनों से लगा कि बोल देना चाहिए। तो पेश हैं मेरे कुछ प्रस्ताव।
तो क्यों लगा मुझे कि तिपहियों को अब कुछ-कुछ जगहों से हटाने की ज़रूरत है ?
सबसे पहले तो इनकी रफ़्तार। देश की सड़कों पर जब ट्रैफ़िक लगातार ख़राब होता जा रहा है।गाड़ियां रेंग रही हैं, ट्रैफ़िक कंजेशन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ज़रूरी है कि ट्रैफ़िक की औसत रफ़्तार को एक जैसा करना होगा। दिल्ली में कई बार देखने को मिलता है कि फ़्लाईओवर पर गाड़ियों की क़तार रेंग रही है और उन सबके आगे दो-तीन तिपहिए दिखेंगे। उनके आगे रास्ते ख़ाली रहेंगे। समतल सड़कों पर तो ठीक हैं लेकिन तिपहियों में लगे इंजिन इतने मज़बूत होते नहीं कि भार उठाकर फ़्लाइओवर पर कारों की तरह भागें। ( वैसे अगर ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी ये ब्लॉग पढ़ें तो एक सुझाव -मौजूदा ऑटो वालों को ट्रेनिंग दिलवानी चाहिए कि वो स्पीड लेन में ना चलें)
ऑटो या थ्री-व्हीलर के साथ एक बड़ी चुनौती तो इसका संतुलन यानि सुरक्षा भी है। ये होते तो थोड़े असुरक्षित हैं। स्टेबिलिटी भी कम रहता है।तीन पहियों का संतुलन कैसा होता है वो आप कभी चला कर देखिएगा। एक बार मैंने चलाया था। छोटे से टेस्ट ट्रैक पर। मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा, एक पत्रकार ने उसी इवेंट में थ्री-व्हीलर पलटकर अपनी हड्डी भी तुड़वाई। ख़ैर। मैं डरा नहीं रहा जिस रफ़्तार में वो आमतौर पर चलते हैं वो सेफ़ ही रहते हैं, ऑटोवाले भी एक्सपर्ट हैं अपनी सड़कों पर चलाने में। दिल्ली में तो कड़ाई है, नौएडा गाज़ियाबाद में ऑटो पर लटके लोगों को देखिएगा तो चौंक जाइएगा कि राजधानी से जैसे जैसे दूरी बढ़ती जाती है इंसान के जान की क़ीमत घटती जाती है। सिर्फ़ 20-30 किमी की दूरी पर ही ऐसे नज़ारे होते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि ये इनक्रेडिबल इंडिया की ही भूमि है।
तीसरी समस्या सवारी लाने ले जाने तिपहिया को लेकर है। बिल्कुल खुले रहने की समस्या। ये सवारियों के लिए असुरक्षित तो है ही ऊपर से भारत के इतने अलग अलग तरह के मौसम के हिसाब से बहुत अव्यवहारिक है। सर्दी-गर्मी-बरसात किसी से रक्षा नहीं है। भले ही तमाम कवर से ढकने की कोशिश हो लेकिन उसके बस की भी बात नहीं होती।
और फिर क़ीमत। वहीं अगर क़ीमत, लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन और घूस मिलाकर तो इनकी क़ीमत वैसे भी कारों के बराबर हो जाती है।
अब तक जो भी मैंने सुझाया उसका मतलब ये नहीं कि ऑटो वालों का रोज़गार चला जाए या ऑटो का नामोनिशान मिट जाए। देखिए लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए ऐसी छोटी सवारियां तो चाहिए ही, तो क्यों ना कोशिश की जाए इन्हें थोड़ा और सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने की। इसमें कोई शक़ नहीं कि जिस तरीक़े से हमारे शहर विकसित हुए हैं उसमें बड़ी टैक्सियों का हर गली कूचे में जाना मुश्किल है, वहां सिर्फ़ ऑटो जा सकते हैं। उन इलाक़ों के लिए तो थ्री-व्हीलर ऑटो तो रहेंगे ही। सवाल ये है कि क्यों नहीं शहर के बाक़ी के रास्तों के लिए लिए, तेज़ ट्रैफ़िक के लिए और लोगों की सुरक्षा और सुविधा के लिए धीरे धीरे इन ऑटो वालों को सरकार कुछ सरकारी लोने में मदद करवाए और थ्री व्हीलर को कारों से छोटी फ़ोर व्हीलर में बदलने में मदद करे। वैसे भी कई प्रोडक्ट आ चुके हैं।बाज़ार में नैनो, टाटा एस या बजाज आरई 60 जैसी सवारियां तो आ गई हैं। वो तिपहियों की जगह क्यों नहीं ले सकते हैं ? कमसेकम चार पहियों के साथ संतुलित तो हैं। थोड़ी सुरक्षा तो और मिलेगी। वहीं सर्दी गर्मी बरसात से भी थोड़ा बचाव होगा। वैसे भी पुरातन डिज़ाइन को हटाने का वक़्त आ गया है, ज़रूरी है कि हर वर्ग के लोगों के लिए सुविधा बढ़ाए जाने पर सोचा जाए। विकास का डिविडेंड सबको मिलना चाहिए।
मुझे ये तो नहीं पता कि मेरे सुझावों में ज़रा भी दम है कि नहीं। सरकारों के लिए या ट्रैफ़िक प्लानरों के लिए ये कोई ठोस मुद्दा है या नहीं लेकिन मुझे ये ज़रूर लगता है कि जिस विकास की दौड़ में सब लगे हुए हैं उस दौड़ को आधी जनसंख्या को असुरक्षित छोड़ कर, धीमा छोड़ कर नहीं जीती जा सकती।
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