‘दिस, माई डियर, इज़ कॉल्ड रीडिंग’ रेत समाधि का नॉन रिव्यू
सोचा था कि साल 2022 में पचास किताबें पढ़ूँगा। एक रैंडम आंकड़ा। किसी भी ठोस तुक से दूर। किसी के इन्स्टाग्राम पर रील देखी होगी शायद। तय कर लिया गया। इस टू-डू लिस्ट में सबसे ऊपर जोड़ी गईं अपने शेल्फ़ पर पहले से ख़रीदी आधी-अधूरी-अन-खतम किताबें। कभी कभी लगता है कि उनका भार ज़्यादा है या होमलोन का। सोचा उन्हें ख़त्म करूँ कि दिल हल्का हो। कुछ जानकारों और कुछ मित्रों ने भी किताबें लिखी तो उन्हें भी लिस्ट में जोड़ लिया। हासिल की हाहुत्ति और हसल कल्चर वाली किताबें तो ऑटोमैटिकली जुड़ी ही थीं। शेल्फ़ वैसे भी सेल्फ़ हेल्प और प्रोडक्टिविटी वाली किताबों का अलग ही अंटा पड़ा था। अब योजना पंचवर्षीय टाइप की थी और क्रियान्वयन भी बीस सूत्री टाइप का। योजना में आए दिन संशोधन भी होते रहे। शेल्फ़ वाली किताबें वैसे ही पड़ी रहीं। ऊपर से कुछ और आ गईं, और पेंडिग लिस्ट लंबी होती जा रही है। और इन सबके बीच आ गई रेत समाधि।
रिपोर्ट पढ़ी कि बुकर प्राइज़ के लिए शॉर्टलिस्ट हुई किताब है एक उपन्यास, जिसकी लेखिका हैं गीतांजलि श्री। मैंने कभी इन्हें पढ़ा नहीं था। जानकारी भी नहीं थी। बुकर लिस्ट बचपन में सुना था कि कोई प्रतिष्ठित लिस्ट है और तब से मानता ही रहा हूँ। कुछ लेखकों की वजह से बुकर को जाना और कुछ लेखकों को बुकर की वजह से पढ़ा। लेकिन यहाँ पहली बार हिंदी की बात हो रही थी। गर्व तो हुआ ही, साथ ही हिंदी साहित्य के लिए एक ज़िम्मेदारी का भी एहसास रहता है तो ख़बर फैलाई भी। लोगों को ख़रीदने के लिए उकसाया तो जाए। हिंदी के पाठक भी तो ख़रीद कर पढ़ें। जीवन भर ड्रीम एलेवन पर टीम ही बनाते रहेंगे? तो सोशल पोस्ट भी कर दिया। ये भी लिख डाला कि पढ़ कर बताते हैं। और तब नहीं पता था कि कहानी इतनी लंबी जाएगी। दो महीने से ऊपर। इस बीच में पतली-मोटी अंग्रेज़ी की तीन किताबें ख़त्म कर दी लेकिन रेत समाधि ख़त्म ही होने का नाम ले रही थी। किताब ख़रीदी, वो अटक गया फिर उसका किंडल अवतार ख़रीदा। लेकिन गाड़ी बैलगाड़ी बन गई थी।
वजह दरअसल एक ही थी। ज़िंदगी लिस्टिकल में चल रही है और ज्ञान बुलेट प्वाइंट में। ऐसे में फ़िक्शन या नॉवेल वैसे ही बंद था, हिंदी उपन्यास तो और भी नहीं ! किताब पढ़ने का डिसिप्लिन कई सालों से घिसता गया है। भाषा को डंब-डाउन करते करते लेखक-पाठक सब डंबित होते गए हैं। ऐसे में किताब ख़़त्म हो गई यही बड़ी उपलब्धि थी। लगा कि लोगों ने जो पूछा था उसके जवाब में रिव्यू लिख दूँ। फिर लगा कि साहित्य का आकलन करने की मेरी हैसियत नहीं है, काम भी मेरा नहीं। वैसे जो आकलन कर भी रहे हैं वो ऐसे ही माशाल्लाह 5 बॉल में 48 रन बनाने वाले टेलएंडर की तरह बल्ला भांज रहे हैं। फिर लगा कि एक औसत पाठक की तरह कुछ किताब प्रेमियों के लिए तो लिखा ही जा सकता है। तो फ़ोमो और सामाजिक ज़िम्मेदारी के बीच दुविधा में था।
जिस पहलू ने लिखने के लिए मजबूर किया वो वाक्यों का गठन ही था। शब्दों की जगलरी। और जड़ होता पाठकीय टैलेंट। और धीरज। परिवार, परिवेश और करियर की वजह से आसान से लेकर क्लिष्ट भाषा को लेकर सहजता तो रही है लेकिन टीवी और सोशल मीडिया में भाषा को आसान करने की जो हवस दिखती है उसने हिंदी वैसे ही ना पढ़ने वाले पाठक को और भी पंगु बना दिया है। आलसी तो हम हमेशा से थे ही। और हिंदी किताबों पर पैसे ख़र्चने वालों की क्या हालत है वो तो सबको पता ही है। तो नए ठेठ शब्दों ने जब चैलेंज किया तो लगा कि लगभग बीस साल के हिंदी टीवी न्यूज़ करियर ने सहज और बोलचाल की भाषा पर जितना भी ज़ोर दिलवाया हो, क़स्बाई व्यापकता में समेटने समझने के लिए बहुत सी बातें बची हुई थीं। सिकुड़ती वोकैबलरी और इमोजी के आधिपत्य के बीच ये अच्छा अनुभव था। नए शब्द पकड़ना। तत्सम नहीं। कई देशज। बोलचाल वाले। बिहारी और दिल्ली के शब्दकोश के बाहर से। कई तो शब्द ही वाक्य थे। और कई अक्षर ही शब्द।
एक बहुत ही स्वच्छंद अभिव्यक्ति का पूरा प्रोसेस दिखा,जो कैसे सोचने और गढ़ने के बाद लिखने में गया होगा ये उत्कंठा हुई। ऐसा लगा कि गीतांजली श्री ख़ुद को ही सुनाने के लिए कहानी गढ़ रही हैं जिसमें ऑडिएंस-पाठक गवाह तो हैं लेकिन सम्मिलित नहीं है। मौजूद हैं लेकिन लिखने का क्राइटीरिया वो नहीं हैं। वो सेकेंड हैंड आनंद ले रहे हैं क्योंकि असल आनंद तो लिखने के प्रोसेस में ही बरस रहा है। शायद इसी स्वच्छंदता ने तो नहीं परेशान कर दिया कुछ को।
या महिला नज़रिया, एक्सप्रेशन जो विचार के स्तर पर नहीं बल्कि भावना, संवेदना के स्तर पर पुरुषों से कितनी बारीक़ी से जुदा होते हैं, जो पुरुष कई बार पाठक और कई बार लेखक के तौर पर महसूस नहीं कर पाते, इसमें दिखा। स्त्री के स्वर को स्टेटमेंट देने की अलग सी कोशिश नहीं, बल्कि स्त्रियों का स्वर और पुकार अलग फ़्रीक्वेंसी की होती है, ऐसा कुछ कहना लगा। कोई आवेश नहीं, कोई कातरता ही नहीं। एक निश्चिंत मैटर-ऑफ़-फ़ैक्ट टाइप का बेलौसपन। हो सकता है कि उम्र के साथ संवेदना बढ़ती हो, इसलिए लग रहा हो। या मेरी अपनी अवधारणा वैसी हो साहित्य को लेकर। पता नहीं। लेकिन बहुत सी प्रतिक्रियाएं दिखीं ज़रूर जिनमें उपन्यास और उपन्यासकार दोनों पर खीज उतारी जा रही थी। कुछ पढ़ नहीं पा रहे थे, कुछ पढ़ना नहीं चाह रहे थे, कुछ ट्रांसलेशन पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे, कुछ पढ़ने से पहले लिखने लग गए थे। इसीलिए मैं लिख नहीं रहा था। वैसे भी हिंदी-मैथिली के साथ ये कोई पहली बार नहीं देखा है मैंने जहां पुरोधा लोग उत्साह बढ़ाते हुए भी रुआंसे से ही साउंड करते हैं। तो उनकी अमोल पालेकरीय-दिन ख़ाली ख़ाली बर्तन है टाइप आलोचनाओं को दूर से नमस्कार करते हुए मैं इतना लंबा पोस्ट इसीलिए लिख रहा हूँ कि पढ़िए। ये पसंद ना आए तो कोई और पढ़िए लेकिन पढ़िए। ऐसा नहीं कि रेत समाधि ने जीवन या साहित्य को लेकर मेरी समझ और मान्यताओं को झकझोरा हो या ये बहुत ही क्रांतिकारी किताब है, नहीं है। जानकार इसे एक्सपेरिमेंटल,स्त्रीवादी विमर्श को आगे बढ़ाने वाली या श्रीलाल शुक्ल से जुदा आवाज़ वाली किताब बोल सकते हैं। लेकिन मुझे इस किताब ने बुलेट प्वाइंट की दुनिया से बाहर निकाल कर पढ़ना याद दिलाया। और ये भी कि ट्रांसलेशन विधा को लेकर भी सम्मान बढ़ाया।
बहुत पहले सुना था या पढ़ा था। या हो सकता है किसी को पढ़ते हुए सुना। ओपरा विन्फ़्रे का संस्मरण कि जब उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी लेखिका टोनी मॉरिसन को फ़ोन किया तो क्या बातचीत हुई थी। ओप्रा ने मॉरिसन की दुरूह भाषा को लेकर कहा कि कैसे लोगों को आपका लिखा समझने के लिए, बार-बार पढ़ना पड़ता है। तो टोनी मॉरिसन ने जवाब दिया-दैट, माई डियर, इज़ कॉल्ड रीडिंग।
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