ऑटो एक्स्पो के ख़त्म होने के बाद आमतौर पर ऐसा ही होता है, ढेर सारे लौंच के बाद अचानक सूखा सा आ जाता है और वही देखने को मिला थोड़े दिनों तक । लौंच की संख्या कम इसलिए लिखने के लिए मसाला भी कम। लेकिन ऐसे में मेरे एक मित्र का सुझाव बड़े सही वक्त पर आया। उनका कहना था कि क्यों नहीं मैं वूमन्स डे के मद्देनज़र कुछ लिखूं जो बात करे बदलते समाज, वहां पर पहले से कहीं ज़्यादा रोल निभाती महिलाएं और उनकी सवारियों की। बाज़ार भी बदल रहा है इस हिसाब से। इस ऑटो एक्स्पो में ही हीरो मोटो की तरफ़ से एक बयान आया था कि महिला राइडरों मे ंभी मोटरसाइकिलों को प्रचलित करने की कोशिश करेगी कंपनी। आमतौर पर सभी दुपहिया कंपनियां महिलाओं के लिए स्कूटी को ही पेश करती आई हैं, क्योंकि आम धारणा यही है कि महिलाओं को गियर से समस्या होती है। इसी वजह से महिलाएं मोटरसाइकिल नहीं चलाती हैं, वो स्कूटर चलाना पसंद करती हैं। यही वजह है कि टीवीएस से लेकर, हीरो, यामाहा जैसी कंपनियों ने बहुत ही ध्यान से केवल महिला राइडरों को निशाने पर रख कर प्रोडक्ट उतारती हैं, उन्हीं के हिसाब से विज्ञापन तैयार होते हैं और ब्रांड एंबैसेडर भी प्रीती ज़िंटा से लेकर दीपिका पादुकोण तक रही हैं। और ये काम भी आया है। ऑटोमैटिक स्कूटरों को लड़कियों और महिला राइडरों ने हाथोंहाथ लिया है। स्कूटरों की बिक्री लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि कारों के मामले में बहुत जेंडर स्पेसिफ़िक पोज़िशनिंग नहीं देखने को मिलती है। पश्चिमी देशों में कई कारों या एसयूवी को कहा जाने लगता है कि ये महिलाओं की कार या लेडीज़ एसयूवी है। लेकिन भारत में फ़िलहाल वो हालत नहीं आई है। यहां पर हो ये रहा है कि कंपनियां महिला और पुरूष दोनों के हिसाब से फ़ीचर्स डाल रही हैं कारों में। वैसे थोड़े दिनों मे ंभारत में भी इस तरीके के सेगमेंट बनने लगेंगे जहां पर कुछ कारें सिर्फ़ महिलाओं की मानी जाएंगी। क्योंकि महिलाएं दिनोंदिन प्राइमरी ग्राहक होती जा रही हैं, यानि कार अपने लिए ख़रीद रही हैं। भारत में हम पहले से कहीं ज़्यादा महिलाएं ड्राइव कर रही हैं, दुपहिया राइड कर रही हैं।
लेडीज़ फ़र्स्ट
“कोई लेडी ड्राइवर ही रही होगी” ये जुमला आजकल काफ़ी इस्तेमाल होता सुनाई देता है। ज़्यादातक मज़ाक उड़ाने के लिए और कई बार संजीदगी से। ये बहस कुछ साल पहले ज़्यादा नहीं सुनने को मिलती थी, लेकिन जैसे जैसे भारत में महिला ड्राइवरों की संख्या बढ़ती जा रही है, महिला ड्राइवरों पर चुटकुले भी बढ़ते जा रहे हैं । ठीक उसी तरह जैसे पश्चिमी देशों में सुनाई देते रहे हैं। जिन देशों में महिलाएं पहले से गाड़ियां चलाती आई हैं। इंटरनेट पर से लेकर यूट्यूब पर टहल जाइए और देखिए कि साइबर दुनिया भरी हुई है महिला ड्राइवरों के कार क्रैश, ग़लत पार्किंग या चुटकुलों से। ढेर सारे रीसर्च भी हुएं हैं लेकिन उनमें से कोई ऐसा आख़िरी जवाब नहीं मिला जिससे ये बहस ख़त्म हो…और बहस बरकरार है कि महिला ड्राइवर बेहतर हैं या पुरुष ? लेकिन भारत में बहुत सारी बहसों की तरह ये बहस भी थोड़ी टेढ़ी है।
ये एक पहलू है। दूसरा पहलू सड़कों पर देखने को मिलता है।
जहां सड़कों पर भी वैसे ही फ़्रिक्शन देखने को मिल रहे हैं जैसे समाज में। किसी महिला को तेज़ गाड़ी चलाते देखा नहीं कि तुरंत लाइन सुनाई देगा- ‘ठोकेगी ये ‘ । लेडी ड्राइवर ने ओवरटेक किया नहीं कि उससे रेस लगना शुरु। पारंपरिक पुरुष ड्राइवरों को ये बात पचती नहीं रहती है कि कोई महिला कैसे उन्हें ओवरटेक कर रही है। ठीक वैसे ही जैसे ऑफिसों में महिलाओं के प्रमोशन की वजहों पर वो हमेशा कोई ना कोई सवाल उठाते हैं। सड़कों पर एक और समस्या है जो नॉर्थ इंडिया में मुझे ज़्यादा देखने को मिलता है। पता नहीं क्यों अभी भी महिला ड्राइवरों को देखना एक अजूबे की तरह होता है। ऐसा नहीं कि कम महिला ड्राइवर हैं, दिल्ली में ही अगर देखें तो। कुछ सुपरबाइक या दमदार एसयूवी चलाती महिलाएं तो वाकई दिलचस्प लगती हैं, वो किसी का भी ध्यान खींच सकती हैं। लेकिन यहां पर बात वहीं तक नहीं रहती है। घूरना एक आवश्यक सामाजिक रिवाज़ सा लगता है सड़कों पर। चाहे अधेड़ उम्र के अंकल हों जो तीन गाड़ियों के बीच से गाड़ी निकाल रहे हों, बावजूद इसके दूसरी कारों में झांकने का समय निकाल पा रहे हैं, चाहे पेट्रोल पंप पर खड़ा नौजवान ड्राइवर हो जो रियर व्यू मिरर में देखने की कोशिश करे कि पिछली कार में कटरीना कैफ़ बैठी है या हेमा मालिनी। या फिर रेड लाइट पर खड़ा ऑटोवाला हो जो नज़रों ही नज़रों में स्कूटी पर बैठी महिला को फ़ेसबुक फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजने की कोशिश कर रहा होता है। कई बार तो ऐसा होते ख़ुद देखा है मैंने, कि इन्हीं नज़रों से बचने के लिए महिला राइडर ने रेड लाइट जंप कर ली हो। कई महिला ड्राइवरों से बातचीत करने पर पता चला कि काले शीशे पर बैन लगने से उन्हें इतनी परेशानी होती है, भले ही सेफ़्टी को लेकर इन पर बैन लगा है लेकिन वो काले शीशे से राहत महसूस करती थीं। कुछ महिला ड्राइवरों को छोड़े दें तो एक औसत महिला ड्राइवर के लिए आम सड़कों पर ड्राइविंग एक ख़ूख़ार जगह सी लगती है, जैसे वो सहमी सहमी सी ड्राइव करती रहती हैं। आम देर रात में ड्राइव करना मुश्किल होता है, कहीं रुक नहीं सकते और कहीं कार में कोई ख़राबी आ गई तो फिर आफ़त ही है। यानि महिलाओं के लिए ड्राइविंग का मतलब केवल स्टीयरिंग व्हील और गियर-ऐक्सिलेरिटर नहीं है। उनके दिमाग़ के डैशबोर्ड में और भी कई चीज़ें भरी होती हैं। और ये सब देखकर वो बहस फ़िलहाल भारत में बेमानी लगती है कि महिला ड्राइवर बेहतर या पुरुष ड्राइवर। दोनों के लिए सड़कों पर एक जैसा महौल बने तब तो पता चले कि कौन सेर है कौन सवा सेर। वैसे एक और मुद्दा है जिस पर ध्यान देना ज़रूरी है । भारत में दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं, १ लाख ४० हज़ार के आसपास। और ये कोई रहस्य नहीं कि इनमें से ज़्यादातर हादसों में पुरुष ड्राइवर ही होते हैं, ऐसे में अगर भारत के मर्द ड्राइवर महिला ड्राइवरों का मज़ाक बनाते हैं तो इससे हास्यास्पद और कुछ नहीं हो सकता।
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