केंद्रीय विद्यालय के सिलेबस में अगड़ों-पिछड़ों पर चैप्टर किसने डाला ?
मैं उस केंद्रीय विद्यालय को भी नहीं पहचान पाया जिसका वीडियो थोड़े दिनों पहले देखा। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर से आया था ये वीडियो जिसमें कुछ छात्र एक छात्र को पीट रहे थे। स्कूलों में छिटपुट लड़ाईयां या मारपीट होती रहती हैं। पर इनके पीछे वजहों का रेंज पेंसिल या इंस्ट्रुमेंट बॉक्स के टूटने से शुरू होकर गर्लफ़्रेंड-ब्वायफ्रेंड तक के मसले जाता था। पर उस वीडियो में पिटाई की वजह कुछ और रही। वो छात्र दलित था। पीटने वाले छात्रों पर आरोप है कि वो साल भर से उस दलित छात्र को पीट रहे थे। अक्सर उसके मुँह पर थूकते थे। समाज में विकृति और हिंसा बढ़ी है, परिवारों में बढ़ी है और बच्चों में भी ये बढ़ी है। पर इस वीडियो ने कई स्तर पर मुझे बुनियादी सवालों से रूबरू करवा दिया ।
पहचाना मैंने उस केंद्रीय विद्यालय को भी नहीं था, जब स्कूल से निकलने के कई साल बाद, एक स्टोरी के सिलसिले में अपने पुराने स्कूल गया था। सीबीएसई के नतीजों में शानदार प्रदर्शन था केंद्रीय विद्यालय संगठन का और स्टोरी यही थी। स्कूल जाने पर पता चला कुछ साल पहले जिस स्कूल को छोड़कर निकला था वो कितना बदल चुका था। पानी टंकी की जगह टेनिस कोर्ट, जहां ब्रेड पकोड़े के लिए लाइन लगाते थे वहां पर स्विमिंग पूल बन चुका है। जहां लड़कियां एलास्टिक से कोई गेम खेला करती थीं वहां पर क्रिकेट के नेट्स लगे थे। पता चला कि कुछ केवी(केंद्रीय विद्यालय) में तो घुड़सवारी भी सिखाई जाती है। केंद्रीय विद्यालय संगठन के अधिकारियों ने बताया कि गर्मी की छुट्टी के दौरान हज़ारों केवी छात्र किसी ना किसी कैंप के लिए अपने शहरों से बाहर हैं। ये सब मेरे लिए अकल्पनीय था, रोमांचक था। मेरे वक़्त में अभाव था। कमियां थीं। इंफ़्रास्ट्रक्चर का। खेल के सामानों को। टेबल कुर्सी का। बिजली का। बास्केटबॉल कोर्ट में बास्केट का।
पहचान तो मैं उस केंद्रीय विद्यालय को भी नहीं पाया था जिसके बच्चे भूरे और थोड़े लाल या कुछेक और गाढ़े रंग के चेक डिज़ाइन वाले कपड़े पहने दिखे थे। मैं जिस स्कूल को जानता था वो सफ़ेद शर्ट और नीली पैंट वाला था। काले जूते होते थे। हफ़्ते में एक दिन सफ़ेद पैंट और सफ़ेद जूतों को होता था। हममें से बहुत से केवी छात्र पब्लिक स्कूलों के छात्रों से यूनिफ़ॉर्म को लेकर मद्धम सी कुंठा रखते थे। आजकी भाषा में कहें तो कई पब्लिक स्कूलों के यूनिफ़ॉर्म डिज़ाइनर लगते थे। पर हमारे यूनिफ़ॉर्म की सादगी एक फ़िलासफ़ी जैसी थी। केवी की एक ख़ूबी जो किसी और सरकारी स्कूल या पब्लिक स्कूल में नहीं थी वो था हर स्तर के सरकारी नौकरों के बच्चों का एक साथ पढ़ना। बड़ा बाबू, छोटा बाबू के बच्चे, गज़टेड ऑफ़िसर और चपरासी के बच्चे। सबके लिए केवी एक कॉमन ग्राउंड था। ये प्राथमिकता थी। पारिवारिक पृष्ठभूमि से उपजी कुंठा या दंभ के लिए गुंजाईश बहुत कम थी। हमारे इंटरऐक्शन में, दूसरे छात्रों से बर्ताव में वर्ग भेद बहुत सीमित थी। स्कूल की बाउंड्री के बाहर एंबैसेडर कार और डीटीसी का अंतर स्कूल के अंदर चल कर नहीं आता था। क्लास में पिता के पोज़ीशन को लेकर किसी की धाक या किसी भी बेइज़्ज़ती नहीं होती थी। मुझे याद नहीं आता कि सरनेम को लेकर हमारी कोई गहन चर्चा हुई हो। जन्म, जाति और सरकारी क्वार्टर एक तात्कालिक सच्चाई थे। दीर्घकालिक सच्चाई सिर्फ़ हमारे चैप्टर, यूनिट टेस्ट, टीचर की ज़्यादतियां और आने वाली परीक्षाएं थीं।
मुज़फ़्फ़रपुर वाली घटना ने मुझे इस वजह से भी झटका दिया कि हमारे वक़्त के टीचर चाहे पढ़ाने में जैसे भी हों छात्रों से ऐसे अनजान, बेज़ार नहीं रहते थे। किसी छात्र को साल भर से कोई ऐसे परेशान कर रहा हो और शिक्षकों ने ऐसे नज़रअंदाज़ किया, ये चौंकाने वाली सच्चाई है। स्कूलों में कुंठित शिक्षकों का होना अपवाद नहीं लेकिन बच्चों के लिए एक बुनियादी संवेदना ज़रूर थी। पढ़ाई को लेकर जैसी भी कड़ाई हो, पर बटन अगर सफ़ेद की जगह काले हो जाएं, सिलाई लाल रंग के धागे से हो जाए तो टीचरों की मौन अनुमति देखी थी, वो ऐसे सफ़ेद शर्ट को भी काफ़ी मानते थे। फिर ये वो वक्त भी था, जब समाज में बराबरी एक आदर्श भी था और एक रियैलटी भी लगती थी। सोचने पर ये भी लगता है कि किसी बड़े कंपनी के सीईओ और चाय वाले दादा दोनों से मैं स्वाभाविकता से बात, शायद इसी वजह से कर पाता हूँ कि केवी में पढ़ा था।
पर अब मन में सवाल उठ रहा है कि मैं अगर आज का छात्र होता तो क्या इतनी निरपेक्षता से किसी इंसान से मिल पाता ? या फिर पहले ये देखता कि उसका सरनेम क्या है, उसके पिता का नाम क्या है? जात क्या है ? अगड़ा है या पिछड़ा ? किसी कैटगरी में आता है ? सवर्ण है या अवर्ण है ?
आज का छात्र होता तो क्या ऐसी व्यवस्था में पढ़ रहा होता जहां पर बराबरी के सपने की लड़ाई में हथियार डाल दिए गए हैं ? जब सामाजिक बराबरी म्यूटेट करके सिर्फ़ राजनैतिक जुमला हो चुका है ? एक मिथक हो गया है ? क्या मैं रिपोर्ट कार्ड की जगह कास्ट सर्टिफ़िकेट पर अपने सहपाठी को आंकता ? क्या मेरे मित्र भी पीरियोडिक टेबल की जगह मनु और माया पर बहस कर रहे होते ? रणवीर सेना और माले पर बयानबाज़ी कर रहे होते ?
एक सवाल ये भी मन में आया कि क्या मैं और मेरे सहपाठी क्या इस वजह से इन चर्चा से निरपेक्ष थे क्योंकि हम दिल्ली में थे ? प्रवासियों के शहर में ? क्या इसलिए कि मदनलाल खुराना शीला दीक्षित केवल जाति पर वोट नहीं मांगते थे ? या वाकई हमारे परिवारों में जाति को लेकर मूर्खता नहीं भरी थी, और उन्होंने हमारे दिमाग़ को ज़हर से नहीं भरा था ? या फिर नितिन गडकरी का ऑब्ज़र्वेशन सही था, जो सबको चुभ गई थी, कि बिहारियों के डीएनए में ही कास्टिज़्म है ?
आख़िर वो कौन सा साल था जब से स्कूलों में सेकेंड नेम फर्स्ट हो गया ? और वो तय किसने किया ? परिवारों ने या नेताओं ने ? ये फ़्लोचार्ट किसने तय किया कि आरक्षण के समर्थन और विरोध में पहले छात्रों को भिड़ाया जाएगा, फिर दो दशक के बाद अगड़ों को आरक्षण देने की मुहिम चलाई जाएगी ? जाति व्यवस्था को मिटाने के नाम पर जातियों की आइडेंटिटी को इतना गाढ़ा कर दिया जाएगा कि हम एक दूसरे को जाति से ही पहचानेंगे ?
फिर ये सवाल उठता है मन में कि मेरी पीढ़ी जाति-व्यवस्था को लेकर डिनायल में थी या मेरी पीढ़ी ज़्यादा प्रगतिशील थी ?
वैसे एक और सवाल मन में आता है जो डराता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस वक़्त में भी ऐसा ही होता था और एक लड़का पिटता था और मैं आजके सहपाठियों की तरह नज़र फेर के आगे बढ़ जाता था और उस अपराध बोध को छुपाने के लिए अपने सहपाठियों और शिक्षकों की तारीफ़ करते हुए ब्लॉग लिख रहा हूँ ? कहीं स्मृतियों के साथ मैं धोखा तो नहीं कर रहा ।
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