क्या आप भी बॉलिवुडिया गानों से त्रस्त होकर बेफ़िक्री वाले गानें ढूँढते हैं ?
तो ये रिस्पॉन्स एक मित्र की व्यथा से उपजी संवेदना का उद्गार है। म्यूज़िक डाइरेक्टरों का कीबोर्ड एक असेंबली लाइन बन चुका है और ऐल्गॉरिदम के सहारे पता किया जा रहा है कि किस उम्र के दर्शकों के लिए किस तरीक़े के शब्दों वाले गाने लिखे जाएं और किन आवाज़ में किस स्पीड में गवाए जाएं। काला चश्मा पर हिट्स ज़्यादा आएंगे या फिर गुलाबी आँखों और हाई हील पर ? सूफ़ी टच के लिए किस पिच पर किस आवाज़ वाले को गवाया जाए और बिरहा के सीक्वेंस में वायलिन का ही इस्तेमाल किया जाए या फिर ग्लोबल होती जेनरेशन के लिए पियानो को हाई किया जाए। पर ये सब तो चलता रहता है, एक ही जैसे गानों को सुनसुन कर अगर त्रस्त हैं तो ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं, भले ही एमटीवी और चैनल वी वगैरह में बॉलिवुड के अलावा कोई म्यूज़िक ना चलता हो, पर ऐसा नहीं कि संगीत बन नहीं रहा है, गाने लिखे नहीं जा रहे हैं। काम हो रहा है। थोड़ा खोजना पड़ता है। भीड़ में से छांटना पड़ता है। पर अचानक कुछेक धुन ऐसे टकरा जाते हैं जैसे सिल्क रूट और मोहित चौहान की आवाज़ कानों से टकराती थी। के.के. की आवाज़ का दर्दीला रेंज और रेमो की बेफ़िक्र गोअन मस्ती समंदर किनारे घुमा लाती थी। पर हाल में पॉप सर्वे पढ़ा था कि 92 फ़ीसदी पॉप गाने प्यार और रोमांस के बारे में ही होते हैं, पर पता नहीं मेरी उम्र है या फिर बॉलिवुड की मजबूरी, वो थोड़ा सिंथेटिक प्यार-तकरार ज़्यादा लगने लगा है। ऐसे में कुछ गाने ढूँढता रहता हूँ, मैंगो फ़्रूटी के शेल्फ़ पर मालदह आम मिल जाता है कभी-कभी। जैसे प्रतीक कुहाड का ये गाना।
“अब होगा क्या..”
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