मासूमियत तो जवानी में होती है, बचपन में कहाँ ? मासूमियत का ही तो क़त्लेआम हो रहा है ।
जवान मासूम है। वो अधेड़ उमर के बहकावे में आ जाता है…जवानी का मन बिना झिझक गाय को माँ मान लेता है, उस माँ की रक्षा में भाई की जान भी ले लेता है..पर मजाल है कि बचपन अपनी माँ के अलावा किसी और को अपनी माँ माने। इस बीच अधेड़ अपनी माँ की देखभाल और रक्षा को आउटसोर्स कर देता है…
बच्चे तो चंट होते हैं, मासूमियत तो जवानी में होती है। बुढ़ापा बेरुख़ेपन और क्रूरता के बीच झूलता है, अधेड़ उमर काईयां होता है, पर मासूमियत तो जवानी में होती है। बचपन की मासूमियत अब सिंथेटिक है। क्यूटनेस मैनुफ़ैक्चर्ड हैं। इंटरनेट का ऐल्गोरिदम मासूमियत प्रोजेक्ट कर रहा है। नाक बहने वाले, फूले पेट वाले कुपोषित बच्चों फ़ोटो पिछली बार कब पॉप-अप हुआ था याद नहीं। वो सर्च इंजिन से बाहर जा चुके हैं। असल क्यूट तो जवानी होती है।
बचपन तो बिना मतलब के बाल नोच कर खाल में दांत घुसा देता है। अधेड़ गणित करता है । बुढ़ापा स्वार्थी हो जाता है। पर मासूमियत सिर्फ़ जवानी के हिस्से ही तो आती है। जो हाथ पकड़े-पकड़े पूरी फ़िल्म निकाल देता है। पता होता है कि कुछ होना जाना नहीं है, हथैली का पसीना पोछ-पोछ कर हाथ में हाथ धरे रहता है। फ़िज़िकल नहीं तो मेटाफ़िज़िकल रिलेशनशिप में संतुष्ट हो जाता है। जवानी क्यूट होती है। जवानी इतनी क्यूट और इनोसेंट होती है कि बुक-माई-शो ही टिंडर हो जाता है। बचपन के लिए किंडर जॉय तो होता है पर संतुष्टि नहीं होती, जब उसके मन का खिलौना ना निकले। बचपन पक्का खिलाड़ी होता है। फोकस्ड होता है। मन का ना हुआ तो पांव पटक के यूरेशियन फ़ॉल्टलाइन को चनका देता है। एवरेस्ट को कसमसा देता है। पर जवानी अपना मन मसोसता है। ख़्वाहिशों को पोस्टपोन करता रहता है। धीरज उसका प्रारब्ध है। वो एक मुस्कुराहट पाने के लिए चार दिन बस स्टॉप पर खड़ा रहता है। ग्यारह किलोमीटर लंबा शॉर्टकट लेता है। रिक्शे के पीछे साइकिल चला-चला कर सालों गुज़ार देता है। निष्काम कर्म करता है।
अधेड़ काईयां होता है वो गणित करता है। नौजवान एक झलक में तृप्त हो जाता है। जवानी की तृप्ति की गारंटी वाली होती है। भले ही ख़ुशी की उम्र तीन सावन की भी ना हो पर एक सूखे गुलाब के साथ पूरी ज़िंदगी गुज़ारने की क़सम खाने का माद्दा रखता है। बचपन तो मतलबी होता है, उसको एटर्निटी से मतलब नहीं होता है। दिन में सत्रह बार वो शाश्वत को निश्वास करते हैं। जवानी की तरह फ़्यूचर टेंस में नहीं जीते हैं। उनको बस प्रेज़ेंट टेंस से मतलब होता है जिसके लिए पूरी कायनात टेंस होती है। पास्ट टेंस को वो पास्ट में ही रहने देते हैं। लेकिन अधेड़ नहीं, वो हाथ मलता है। जवानी हाथ थामता है।
हृदय तो जवानी का निश्कलुष होता है जो सबकी बात मान जाता है। दिनों को अच्छा करने वाले डिटर्जेंट को घोलकर पी जाता है और उफ़ तक नहीं करता। कभी बचपन को कोशिश कीजिए लैक्टोजेन या फैरेक्स खिलाने-पिलाने की। मजाल है कि चार बार टेस्ट करके पांच बार जब तक थूकेगा नहीं सवाल ही नहीं उठता कि कुछ स्वीकार कर ले। और इस पर भी गारंटी ये नहीं कि पीठ पर थपकी देते वक़्त उल्टी नहीं कर देगा। जवानी के पास ऐसा विकल्प समाज ने नहीं दिया है। दिन अच्छे हों ना हों, वो ख़ून के घूंट पीकर भी उलटता नहीं है। वो ज़ुबान की पक्की होती है। अधेड़ वादे से पलट जाता है। जवान मासूम है। वो अधेड़ उमर के बहकावे में आ जाता है। जो उसे सिखा देता है कि उसका जीना मरने के बाद शुरू होगा तो उस प्रचारित ज़िंदगी की उम्मीद से भरा मर लेता है। बचपन शातिर होता है। वो हर तरीके पर सवाल करता है। जवानी का मन बिना झिझक गाय को माँ मान लेता है, उस माँ की रक्षा में भाई की जान भी ले लेता है। बचपन चवन्नी छाप खिलौने के लिए हाथ तो भंभोड़ देता है पर मजाल है कि बचपन अपनी माँ के अलावा किसी और को अपनी माँ माने। इस बीच अधेड़ अपनी माँ की देखभाल और रक्षा को आउटसोर्स कर देता है।
जवानी अपने लिए नहीं सोचता है। उसे जो समझा दिया जाता है उन आदर्शों के लिए सोचने लगता है, धर्म के लिए सोचने लगता है। उसे बता दिया जाता है कि जीने का एक ही तरीक़ा है तो वो भेड़ बन जाता है। उसे बताया जाता है कि धर्म ख़तरे में है तो वो भेड़िया बन जाता है, लोन वुल्फ़ बन जाता है। वो सिखाने वालों से नहीं पूछ पाता कि मैं क्यों आप क्यों नहीं ?
भोलापन ही है जो जवानी को ये विश्वास करने पर मजबूर कर देता है कि भगवान को प्रेम कर सकता है पर इंसान नहीं। वो इसी भोलेपन में प्रेमी जोड़ों को दौड़ा दौड़ा कर मारता है। वो भी विश्वास कर लेता है कि देवियों को तो अपना वर चुनने का अधिकार होता है पर लड़कियों को नहीं। इसीलिए वो अगर किसी लड़की को अपने पसंद के लड़के के साथ कॉफ़ी पीते देखता है तो उसके बाल खींच के गिरा गिरा के मारता है, इतना मारता है जब तक लड़कियां अपने कपड़ों में पेशाब नहीं कर देती हैं। अधेड़ गणित करता है। बुढ़ापे में बेरुख़ी है।
भोलापन तो जवानी में दिखता है। वो बहता है-बहकता है। बूढ़ों का ब्रेनवाश नहीं होता। बच्चों का नहीं। ब्रेनवाश केवल जवानी का होता है। उसे समझा दिया जाता है कि असल ज़िंदगी धरती पर नहीं मरने के बाद शुरू होती है, तो वो मर भी लेता है। उसे समझाया जाता है कि संगीत गुनाह है और उसका आनंद लेने वालों को सज़ा मिलनी चाहिए तो जवानी अपने साथ उनकी भी जान ले लेता है। जवानी सवाल नहीं करता। वो ब्रेनवाश होता है। बचपन नहीं, बूढ़ा नहीं। अधेड़ काईयां होता है वो ब्रेनवाश करता है।
जवानी में मासूमियत होती है तो वो आदर्श और धर्म के लिए लड़ता भी है। अधेड़ नहीं लड़ता। वो गणित करता है । वो जस्टीफ़ाई करता है। ज़िदगी को जस्टीफ़ाई करता है। मौत को भी जस्टीफ़ाई करता है। वो हत्या को भी जस्टीफ़ाई करता है और आत्महत्या को भी। अपनी ज़िंदगी की असफलताओं की मायूसी का मासूमियत और सपनों की हत्या करवा कर बदला लेता है। अधेड़ अपने मरे हुए सपनों का मानवता से बदला ले रहा है। धरती को उजाड़ बना रहा है। नौजवानों से नौजवानों को मरवा कर मासूमियत को ख़त्म कर रहा है। संभावनाओं का क़त्ल कर रहा है। उम्मीदों, सपनों और आदर्शो की माया में यक़ीन करने की क्षमता का भी क़त्ल कर रहा है।
मुझे अब अपनी उम्र समझ में नहीं आ रही है। मेरे लैपटॉप में इंक ख़त्म हो रहा है तो लिखना रोक रहा हूँ। नहीं तो और बताता कि बचपन तो इंसानियत को रगेत रहा है, इंसानियत को चला तो जवानी ही रही है ।
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