भोलेनाथ के नाम खुली चिट्ठी…
डियर भोलेनाथ,
हो सकता है कि आप मुझे जानते हों, इसलिए नहीं कि मैं टीवी पर दिखता हूं, इसलिए क्योंकि आप तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश में से एक हैं, तो इसीलिए शायद। बाक़ी जो जनसंख्या है और जो डेटा की ओवरलैपिंग है उसमें कुछ गफ़लत हो सकती है। तो ऐसे में रिकॉर्न एक्सेस ना भी कर सकें तो एनॉनिमस कैटगरी में लेटर डाल दीजिएगा। बाक़ी आपको बता दूं डियर भोले (आपको तो डियर से आपत्ति नहीं ही होगी आईएम श्योर) कि आपसे मेरा नाता मेटाफ़िज़िकल से लेकर जियोग्राफिकल रहा है, बचपन से ही है। पटना में किसी को मेरे घर का पता देते हुए यही कहा जाता था कि शिव मंदिर के पीछे। यहीं नहीं, ये रिश्ता पुरातन भी रहा है क्योंकि मेरा घर नए वाले नहीं, पुराने शिवमंदिर के पीछे वाली कॉलनी में था।
वैसे महादेव आपको बताऊं कि फिर साल भर मुझे आपका इंतज़ार भी रहता था। क्योंकि कोई ना कोई जान-पहचान वाला देवघर ज़रूर जाता था। वैसे ये जानकर थोड़ा दुख हुआ ये जानकर कि मायावती को गलियाने वाले दयाशंकर सिंह हाल में वहीं दिखे थे, लेकिन ये तो हम इंसानों का मेंटल ब्लॉक है इमेज और ब्रांडिंग का।आप तो नीलकंठ है। ख़ैर तो इंतज़ार इसलिए रहता था कि वहां से कोई ना कोई बोलबम यात्रा के बाद लाल गमझा ज़रूर लाता था। वो इतना सस्ता होता होता था कि उस उम्र में भी वो मेरा इंडिपेंडेंट गमझा बन जाता था और लपेट कर मैं टहलता था, इस पर चेक वाला डिज़ाइन भी रहता था, मेरी हाइट भी तब इतनी नहीं थी, लेकिन राहत की बात ये थी कि लाल रंग की वजह से तहमद नहीं बनता था। ख़ैर मृत्युलोक एक मुहावरा चलता है भोले, सस्ता रोए बार बार, तो महीना डेढ़ महीने में वो निपट जाता था। दूसरा एक जुड़ाव था स्वाद और पेट का, देवघर से बारीक़-पतला चूड़ा आता था, जिसे दिल्ली में चिड़वा या पोहा कहते हैं, जो आरांचीदाना के साथ खाते थे (सफ़ेद वाली छोटी मीठी गोली, आजतक मैं पता नहीं कर पाया कि दिल्लीवाले इसे क्या कहते हैं) हां ये बात है कि वो चूड़ा सिर्फ़ उसी काम आ सकता था क्योंकि भोले अगर आप को ज्ञात हो तो मिथिला के लोग दही-चूड़ा के मामले में चूज़ी होते हैं तो ये पतला वाला सबसे ख़राब कैंडिडेट था, दही मिलते ही वो हलवा बन जाता था। फिर पेड़ा भी तो होता था। वैसे ये बताऊं कि अगर किभी देवघर आपका जाना हुआ तो पेड़ा ज़रूर देखिएगा। वैसे मुझे पता नहीं कि आपको मीठा पसंद है कि नहीं, मैंने आपको कभी खाते देखा भी नहीं। ख़ैरे अगर किसी भी पेड़े को दिव्य कहने पर कॉनसेंसस बन सकता है तो मुझे लगता है वही पेड़ा होगा (चलिए मथुरा वाले को जोड़ देते हैं)।
अब पहली बार लेटर लिख रहा हूं आपको तो ध्यान ही नहीं रखा कि लेटर का एजेंडा कुछ और था। ये बताता हूं कि देवघर की याद आज क्यों आ रही है मुझे, दरअसल पिछले कुछेक दिनों से याद आ रही है। जिसकी वजह हैं कॉंवड़िया। आपकी जानकारी के लिए बताऊं कि सावन में आपको बहुत से भक्त कांवड़ लेकर पूजा के लिए निकलते हैं। बचपन में देखा था और पिछले कुछ सालों से फिर से देख रहा हूँ।
तो इस साल भी दिल्ली और आसपास की कई सड़कों पर कांवड़ियों का बोलबाला रहा, जगह जगह जत्थे चल रहे हैं, बड़े बड़े ट्रक पर भीमकाय स्पीकर वाले म्यूज़िक सिस्टम पर झूमते भक्त हैं। इस यात्रा को देखकर सोच में पड़ जाता हूँ, कि क्या ये वही यात्रा होती है जो बचपन में मैं देखा करता था। उस यात्रा में सभी लोग हँसमुख दिखते थे, किसी उत्सव का उल्लास दिखता था। आवाज़ के नाम पर ख़ाली बोलबम-बोलबम के नारे होते थे। आपको उनकी आवाज़ आती है भोले? अगर हां तो क्या आपको कोई फ़र्क लगता है उनके टोन में ये पिच में ?
भोले आप बताएं कि क्या ये मेरा पूर्वाग्रह है या लिबरल इनटॉलरेंस की कुंठा ? मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि इतने सालों में बोलबम की यात्रा में उल्लास का अनुपात कम हो रहा है, उन्माद का बढ़ रहा है। हर साल पिछली से बड़ी ट्रक पर बड़े बड़े स्पीकर लगा कर कांवड़ियों की टोलियां निकल रही हैं। सड़कें भर रही हैं, ट्रक बस भरे निकल रहे हैं, बिना हेलमेट पहने नारंगी-राइडर्स के जत्थे निकल रहे हैं। ट्रैफ़िक धीमा होता है और कई जगह जाम भी लगते हैं। वैसे भोले आपको बताऊँ कि ट्रैफ़िक रूल्स जितना कैलाश पर्वत का एरिया अछूता है उतना ही ये देश। लेकिन उल्टी ट्रैफ़िक में जाना तो लिटिल टू मच हो जाता है भोले? ये समझ नहीं आता कि आपकी साधना में लगे भक्त क्या बाक़ियों को मृत्युलोकवासियों को फ़ोर्स कर सकते हैं ? भोलेनाथ ?
वैसे भोले, इस भीड़ को देखकर मुझे कई आश्चर्य होते हैं जिनमें से एक ये कि इस पूरे भक्त-सैलाब में काँवड़ लिए भक्तों की संख्या तो कम होती है, लेकिन हॉकी-स्टिक और बेसबॉल बैट लिए गेरुए टीशर्ट-बरमूडा में भक्त जन ज़्यादा दिखते हैं। आख़िर ऐसा अनुपात क्यों?
फिर आश्चर्य होता है बैकग्राउंड संगीत पर । हालांकि उस पर रोक की ख़बर भी सुनी थी। वैसे पिछले साल लाइव म्यूज़िक और डीजे पर बैन लगाने पर भक्तों ने कहीं तांडव भी कर डाला था और यूपी के बीजेपी नेता ने प्रधानमंत्री मोदी से भी अपील कर डाली थी कि ये नॉन-डेमेक्रैटिक है, बैन हटना चाहिए। आश्चर्य ये लगता है कि तमाम मसाला बॉलिवुडिया आइटम नंबर पर बनाए भजन पता नहीं आपको को कितना पसंद होंगे भोलेनाथ, आपके तो डमरू से ही संगीत निकला था ?
फिर ये आश्चर्य ये होता है कि आख़िर इनमें इतना ग़ुस्सा किस बात का रहता है ? चूंकि आमतौर पर ये सड़क की बाईं तरफ़ वाली लेन क़ब्ज़ाए चलते हैं, जहां पर आमतौर पर मोटरसाइकिल वाले या फिर साइकिल वाले चलते हैं, या शहर के बाहरी इलाक़ों में रिक्शा वाले चलते हैं। तो मोटरसाइकिल सवार भक्तों की ये अगड़ी टोली बाउंसर का काम करने लगती है। मैंने ख़ुद देखा है साइकिल और मोटरसाइकिल वालों को धकियाते और डंडे मार कर किनारे करते ।
लेकिन सबसे आश्चर्य ये होता है भोलेनाथ, कि इस यात्रा में लंपटई कहां से आ गई है, जहां कई बार ट्रकों से वो लड़कियों पर फ़ब्तियां कसते दिखाई दे जाते हैं, और ये मैं सिर्फ़ सोशल मीडिया पर लिखी बातों के आधार पर नहीं कह रहा हूँ। और ये कौन सी ऐसी भक्ति है जो लॉ एंड ऑर्डर से ऊपर हो गई है ? भोले पुलिस तो चुप हो जाती है इस लोक की, ज़रा नंदी से कह कर कुछ कीजिए इनका।
आपको बता दूं भोले, कहीं आप इधर नज़र डालें तो भारत अब एक नेशन है। अचरज में मत पड़ जाइएगा अगर भक्तों को कहीं आपने तिरंगा लिए देखा तो, वो केसरिया, सफ़ेद और हरे रंग वाला झंडा होगा। बीच में अशोक चक्र होगा। अशोक के बारे में अगली चिट्ठी में। इस बार मुझे दिखे हैं कई जत्थे ऐसे। वो असल में देश थोड़े गुस्से में है भोले।
लेकिन दीनानाथ, ये भी बता दूं कि आते-जाते आज भी वो भक्त दिख जाते हैं जो अकेले या छोटे गुच्छे में शांत भाव से सड़कों से निकलते गुज़रते दिखते हैं, थके हुए लगते हैं, लेकिन चेहरा उनका संतुष्ट सा दिखता है। उन्हें देख याद आते हैं वो चाचा जो मुस्कुराते हुए अपने पांव के ज़ख़्म दिखा के बताते थे कि कैसे सुल्तानगंज से देवघर के बीच कहीं कुछ ऐसा रास्ता भी आता है जहां पर कंकड़ कील जैसे होते हैं, जहां से सबको गुज़रना होता है। लेकिन ऐसे भक्त अब माइनॉरिटी में हैं शायद। भोले उनकी भी सुन लेना।
सॉरी इस चिट्ठी में वेंट-आउट कर रहा था, बाक़ी अगली चिट्ठी में भोले। अगली बार कैन वी डिस्कस म्यूज़िक।
आपका अनॉनिमस ।
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