कब हार मानी होगी गोरखपुर के अस्पताल में बैठे उस पिता ने …और किससे ?
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प्रतीकात्मक तस्वीर[/caption]
दरअसल बच्चा हमें बदल देता है और एक आदिम रूप में भी ले जाता है। जब पिता की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी बच्चों की रक्षा ही थी। और शायद यही शारीरिक मानसिक बनावट आज भी पिता की पहली प्राथमिकता बच्चों की रक्षा को ही बनाती है। किसी भी क़ीमत पर किसी भी ख़तरे से बच्चे को बचाने का भाव केवल भावना की वजह से नहीं बल्कि हज़ारों हज़ार साल की हमारी मानसिक-शारीरिक बनावट की वजह से भी आती है।
यही सब लिखते हुए मैं दरअसल उस पिता के दर्द की एक-एक बारीक़ी, उसकी तासीर को समझ सकता हूँ, उसकी बेचारगी, उसकी उम्मीद, उसके गुस्से का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर सकता हूँ, जिसकी गोद में उसका चार दिन का बच्चा सांस के लिए तड़प रहा था। जिस बच्चे को गोरखपुर का अस्पताल वेंटीलेटर नहीं दे पाया। जिसके बाद पिता ने एक मेडिकल पंप या अंबू बैग से सांस देने की कोशिश करता रहा। पांच घंटे तक जो अपने बच्चे को ऑक्सीजन देने की कोशिश करता रहा। सोचने की कोशिश कर सकता हूँ कि कैसे वो अपने नवजात बच्चे को बचाने में पांच घंटे में पता नहीं कितनी बार मरा होगा। कितनी बार उसने अपने बच्चे की छाती पर हाथ रखकर उसकी धड़कन महसूस करने की कोशिश की होगी। कैसे हर सेकेंड लड़ रहा होगा और हार रहा होगा। कैसे छोटे से शिशु के छोटे से नथुने को बार बार छूकर शायद जांचता होगा कि सांस चल रही है कि नहीं। और उसे कैसा लगा होगा जब बच्चे की सांसें टूट रही होंगी। कब उसने स्वीकार किया होगा कि अब वो बच्चा सांस और धड़कन के चक्र से कहीं दूर छूट चुका है। मुझे ये नहीं पता कि उस पिता ने कब हार मानी, कब उसे पता चला कि अब वो वापस नहीं आ पाएगा और क्या ये जानने की बाद भी उसने बैग से ऑक्सीजन देने की कोशिश तो नहीं की ? एक थेथर, भोथरा हो चुकी उम्मीद के तहत ? मुझे नहीं पता कि वो इंसान इस हार की याद को कभी धुंधला पाएगा कि नहीं ? अपने बच्चे को ना बचा पाने की बेचारगी कब तक उसका पीछा करेगी ? ये भी नहीं जानता कि बच्चे की टूटी सांसें उसे हारा हुआ महसूस करवा रही थीं, किस्मत को कोसने के लिए कह रही थीं या सिस्टम के लिए गुस्सा पैदा कर रही थीं ? क्या उसके मन में नेताओं के वायदे आए होंगे ? ऑक्सीजन सिलिंडर ढूंढा होगा या सिर्फ़ ये सोच रहा होगा कि यही उसकी नियति थी क्योंकि वो दिल्ली मुंबई में नहीं रहता है, ख़बरों की दुनिया से दूर रहता है? एक ऐसी ज़िंदगी जीता इंसान, जिसका जीवन भूला हुआ संघर्ष है जिसकी चर्चा अब निषिद्ध है।
मैं केवल अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर सकता हूँ, पर उस अनजान पिता के दर्द को समझने की बात कह कर उसकी पीड़ा का अपमान नहीं करना चाहता। मैं तो ये सब लिखना भी नहीं चाहता था। ये भी नहीं बताना चाहता था कि ये ख़बर लिखते वक़्त मेरा मन कितना दुखा था। पर फिर भी पता नहीं किस थेथरई में लिख रहा हूँ। शायद किसी अपराध बोध में लिख रहा हूँ।
मर्मस्पर्शी शब्दचित्र के लिए शुक्रिया क्रांति संभव जी