ओमर अबदुल्लाह का ट्वीट, राजनाथ, युद्ध का झुनझुना और वैग द डॉग
कभी-कभी लगता है कि हॉलिवुडिया कथाकार त्रिकाल दर्शी होते हैं। मतलब संजय दृष्टि से दो पैकेज एक्स्ट्रा। संजय का तो सिर्फ़ एक पैकेज था, वर्तमान का, उसमें भी चैनल ख़ाली कुरूक्षेत्र का था। पर हॉलिवुडिया डाइरेक्टर के पास दो और पैकेज होते हैं, भूत और भविष्य। वो अलग लेवल के द्रष्टा होते हैं। जैसे आज की ही बात करूं तो ड्राइवरलेस कार पर रीसर्च करते हुए देखा कि गूगल की बिना ड्राइवर वाली कार में लोग ठीक वैसे ही हिचकोले खा रहे थे जैसे डेमोलिशन मैन में सिल्वेस्टर स्टैलॉन और सैंड्रा बुलौक जा रहे थे, बिना ड्राइवर वाली कार में।
दूसरा उदाहरण याद तब आया जब ओमर अब्दुल्लाह ने एक स्टोरी ट्वीट की। जिसे मैंने बहुत ग़ौर से नहीं देखा था। राजनाथ सिंह को यूपी का मुख्यमंत्री बनाए जाने की मुहिम का ज़िक्र था और बाक़ी इत्यादि टाइप की जानकारियां थीं। फिर वापस जाने पर ओमर साहब की टिप्पणी देखी तो पता चला कि वो सेकेंड लास्ट पैरा पढ़ने के लिए भी लिखे थे। तो वहां पर कश्मीर में होने वाले किसी बड़े सैनिक ऑपरेशन होने की बात की गई थी। वो जानकारी भी मुझे इत्यादि कैटगरी की ही लगती अगर तारीख़ पर नज़र नहीं पड़ती, जो जून की थी। मतलब चार महीने पहले की। फिर ध्यान से पढ़ा। ओमर अबदुल्लाह का कहना था कि जून की इस रिपोर्ट ने जर्नलिस्टों ने असली स्कूप मिस कर दिया। रिपोर्ट में स्थानीय बीजेपी नेताओं के हवाले से लिखा गया था कि जम्मू-कश्मीर में एक बड़ा ऑपरेशन होने वाला है, जिसमें सफलता के बाद राजनाथ सिंह हीरो बनेंगे और यूपी के सीएम पद का उम्मीदवार बनाने के लिए सही माहौल होगा। ये ख़बर वाकई दिलचस्प थी। अगर ये ख़बर सही है तो फिर सर्जिकल स्ट्राइक की पटकथा बहुत पहले से लिखी जा चुकी थी। ओमर अब्दुल्लाह ने अपने दूसरे ट्वीट में ये अंडरलाइन किया कि ये ख़बर उड़ी हमले, घाटी में चल रहे बवाल से पहले की ख़बर है।
ख़ैर इस ख़बर से मुझे आजकी दूसरी फ़िल्म याद आई। जिसका नाम था ‘वैग द डॉग’। दो ज़ोरदार अभिनेता उसमें थे, रॉबर्ट डि नीरो और डस्टिन हॉफ़मैन। कहानी ये थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से ठीक पहले मौजूदा राष्ट्रपति सेक्स स्कैंडल में फंसे थे, लोकप्रियता का ग्राफ़ गिरा हुआ था। अब इस समस्या से कैसे निपटा जाए ? तो राष्ट्रपति की टीम ने ठेका दिया रॉबर्ट डि नीरो को और उन्होंने एक फ़िल्म डाइरेक्टर यानि डस्टिन हॉफ़मैन को पकड़ कर एक नकली युद्ध गढ़ दिया। अल्बानिया के साथ एक फ़िल्क्शनल युद्ध शूट किया गया, जिसे अमेरिकी जनता को परोसा गया और लोगों को ध्यान राष्ट्रपति के स्कैंडलों से भटकाया गया। जो दरअसल वैग द डॉग मुहावरे का मतलब भी है। छोटी चीज़ों में ध्यान भटका कर बड़ा खेल करना। वैसे विकिपीडिया ने एक और दिलचस्प जानकारी दी, वो ये कि फ़िल्म के रिलीज़ होने के एक महीने बाद मोनिका लिवेंस्की वाले स्कैंडल में क्लिंटन साहब फंसे थे और सूडान के किसी इलाक़े में अमेरिका ने हमला भी किया था।
ये फ़िल्म कुल मिलाकर इसलिए याद आई कि अमेरिका में तो युद्ध और राजनीति का हमेशा गहरा रिश्ता रहा है। दुनिया के बहुत से देशों में रहा है। पाकिस्तान में तो लोकतंत्र की इमारत ही युद्ध के सीमेंट से खड़ी की गई है। पर अपने देश का प्रजातंत्र इस मामले में परिपक्व रहा है। वोटर बहुत समझदार रहे हैं। युद्ध ने हमें कभी ज़्यादा एक्साइट नहीं किया है। हम वोटर को लोग भले थेथर बोलें पर ये हमारा जुझारूपन है कि सरोजिनी मार्केट में बम फट गया लाजपत मार्केट से कुशन कवर ख़रीद लेते हैं। हिंसा का जवाब हम कुशन कवर ख़रीद कर देते रहे हैं है। वोटर में मन में युद्ध और सर्जिकल स्ट्राइक का मुक़ाबला प्याज़, टू जी और गाय से जब भी हो हमने प्याज़ और गाय चुना है। भले ही बंपर पर स्क्रैच लगाने पर अपने पड़ोसी को चाकू से गोद कर हम उसके प्राण ले लें पर वो डोमेस्टिक लेवल पर। इंटरनैशनल लेवल पर हम वोटरों की बदौलत भारत शांतिप्रिय देश है। पर अब वोटिंग पैटर्न चेंज हो रहा है। हम सब गुस्से में हैं। जिसे युद्ध पसंद है। और इस ख़ुशफहमी में मत रहिए कि हिंसा का सेक्स अपील केवल राइट और लेफ़्ट विंगर में देखने को मिलेगा। ख़ुद को लिबरल कहने वाले भी सरकार को जमकर उकसा रहे हैं, यानि प्रकारांतर से युद्ध के लिए ललकार रहे हैं। इसी पैटर्न ने सबको कन्फ़्यूज़ कर दिया है।
फटाफट दावा हो गया कि यूपीए ने भी सर्जिकल स्ट्राइक करवाया था।
ट्तो हो सकता था कि अगर ख़बर बड़ी होती, जैसा अब्दुल्लाह जी बोल रहे थे, तो सबूतयाचक आलोचक सरकार पर ये आरोप लगाते कि राजनैतिक फ़ायदे के लिए स्ट्राइक करवाया गया, पर उसमें फिलहाल समस्या ये है कि आरोप लगाने से पहले ये मानना पड़ेगा कि स्ट्राइक की गई थी। जहां पर भारी उहापोह है।
केजरीवाल पहले व्यंग्य करते हैं। मोदी को सलाम करते हैं, सेना पर सवाल उठाते हैं।मनीष सिसौदिया बिचारे अपने ट्वीट के ज़रिए उन तानों और व्यंग्यों को एक गंभीर सवाल में ट्रांसफॉर्म करना चाहते हैं, पर व्यंग्य के साथ समस्या वन वे होती है। गंभीर बयान को तो व्यंग्य कैटगरी में क्वालिफ़ाई कराया जा सकता है। जैसे मार्कंडेय काटजू सफलतापूर्वक करते हैं। पर व्यंग्य वाले बयान को सीरियस कैटगरी में वाइल्ड कार्ड एंट्री भी नहीं मिलती है। तो फिर महबूबा मुफ़्ती से भारत माता की जय बुलवाना पड़ता है। ‘पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब दे दिया गया है’ जैसे जैविक बयान देने पड़ते हैं।
फिर ख़बर आती है कि यूपीए के वक़्त में भी सर्जिकल स्ट्राइक हुए थे। जिसका तब ज़िक्र नहीं हुआ अब हो रहा है
Recent Comments