हर जान की क़ीमत बराबर नहीं होती …
हमारी उत्सुकताओं का सरोकार कैसे तय होता है ? तरजीह कैसे मिलती है ? किसको मिलती है ? मौत के तरीक़े से ? मरने वालों की आर्थिक स्थिति से ? मीडिया के न्यूज़ सेंस से ? नैशनल चैनल के ब्यूरो ऑफ़िसों के दायरे के हिसाब से ? हमारे वास्तों को संसार क्या केवल मीडिया तय करता है ?
अपने लिखे-बोले की व्याख्या करने की यूटिलिटी मेरे ज़ेहन में बहुत कम है। इसलिए नहीं कि व्याख्या या एक्सप्लेन करना ग़लत है, या किसी भी संशय या सवालों का जवाब देना कमज़ोरी का लक्षण है। दरअसल ये टाइम वेस्ट कार्यक्रम है क्योंकि आजकल समझने का धीरज कम है और धारणा बनाने के लिए वक़्त ज़्यादा। ऊपर से किसी भी ज्वलंत मुद्दे की उम्र टाइमलाइन से लंबी नहीं होती। लेकिन आज मूड कुछ अलग है तो ये ब्लॉग। तो प्रसंग है हाल के दो हादसों की तुलना करता निम्नलिखित पोस्ट-
” पांच लोगों की हवाई हादसे में मौत और पांच लोगों की बस हादसे में मौत में ज़मीन आसमान का अंतर होता है।”
अपने इस पोस्ट पर कुछेक शुभचिंतकों के संदेश के बाद सोचा था कि मेरे एक वन लाइनर को उससे लंबा करना पड़ेगा। हुआ ये था कि दो तीन शुभेच्छुओं ने कहा कि ये समझ नहीं नहीं आया, कुछेक फ़ेसबुक मित्रों ने इस पर हँसने वाली स्माइली टीप दी थी। अब आज ये सब इसलिए याद आया क्योंकि फिर से एक बस दुर्घटना हुई उत्तराखंड में।
बीचक्राफ़्ट किंग एयर C90 की ख़बर थी । पहली बार मैंने ये नाम सुना था। हवाई जहाज़ों के बारे में बहुत जानकारी नहीं है मुझे लेकिन कुछ ही घंटों में सबको सबकुछ पता चल गया था। इस हवाई जहाज़ के हिस्ट्री-सिविक्स-ज्योग्राफ़ी सभी कुछ। कहां किसने इस एयरक्राफ़्ट को बेचा, किसने ख़रीदा, किसने मरम्मत की। किसने इसे चलाया और कौन इसमें गिरा। मारे गए लोगों के परिवार वालों तक के नाम पता चल गए। एजेंसियों से सवाल जवाब भी हो गए।
उत्तराखंड में जो हादसा हुआ उसमें 48 लोगों की मौत हो गई थी। मुझे एक का भी नाम नहीं पता। बस किसकी थी, किसने ख़रीदी थी, किसको बेची थी किसने मरम्मत की थी और कौन चला रहा था, किसने इजाज़त दी और फिर क्या कार्रवाई हुई ये तफ़्सील से नहीं पता। इसकी कवरेज बहुत नहीं दिखी। इस बस की हिस्ट्री-सिविक्स-ज्योग्राफ़ी भी नहीं पता। हां अंदाज़ा ज़रूर लगाया जा सकता है । जैसे बस की क्षमता। अगर बस 28 सीटों वाली हो और उस क्षमता से दुगने से ज़्यादा लोग यानि 58 लोग बैठे हों तो फिर क्या हो सकता है, वो भी पहाड़ी इलाक़ों में ? फिर ये सवाल कि आख़िर कमाई के लिए बसवालों का कितना ख़तरा उठाना सही होता है। यहा कहीं ये उन लोगों के दबाव में तो नहीं हुआ जिनके पास कोई और विकल्प नहीं था, जो ओवरलोड हुई बस को देखभाल कर ही बैठे होंगे। फिर ये भी अंदाज़ा लग सकता है कि ये बदकिस्मती थी नहीं तो ऐसी ओवरलोडेड बसें तो रोज़ चलती हैं। फिर ये भी कि पुलिस-प्रशासन ये होने देता होगा तभी तो होता है।
आज फिर एक बस दुर्घटना हुई उत्तराखंड में। 10 लोग मारे गए। आज भी किसी का नाम-पता नहीं मालूम। ये पहली बार नहीं हुआ, आख़िरी बार भी नहीं।
तो दोनों घटनाओं की तुलना नहीं थी ये। किसी मृतक की तुलना भी नहीं है। किसी परिवार के दुख का आंकना भी नहीं । अपनी नज़रों और सरोकार को तोल रहा हूँ।
हमारी उत्सुकताओं का सरोकार कैसे तय होता है ? तरजीह कैसे मिलती है ? किसको मिलती है ? मौत के तरीक़े से ? मरने वालों की आर्थिक स्थिति से ? मीडिया के न्यूज़ सेंस से ? नैशनल चैनल के ब्यूरो ऑफ़िसों के दायरे के हिसाब से ? हमारे वास्तों को संसार क्या केवल मीडिया तय करता है ? क्यों किसी लग्ज़री कार के ऐक्सिडेंट को लोग सड़क जाम कर-करके देखते हैं और मोटरसाइकिलसवार के गिरने पर किनारे से बच कर निकलते हैं ? बस हादसे हेडलाइन होते हैं और हवाई हादसे कहानियां ? क्या हमारी संवेदनाएं केवल सनसनी से गाईड होती हैं ? या दुर्घटनाओं की नाटकीयता ? क्यों कुछ दुर्घटनाओं में लोगों की मौत होती है और कुछ में आंकड़ों की ?
*कुछ हफ़्ते पहले लिखा ब्लॉग
Grate blog sir.
Awesome post! Keep up the great work! 🙂