ऑड और ईवन: प्रदूषण का प्रेत और ट्रैफ़िक का चुटकुला
चलिए कार्यक्रम ये है कि शुरूआत मुहावरे से करता हूं और अंत चुटकुले से करूंगा । बीच में भी कुछ लिखूंगा। कुछ ऐसा नहीं जिससे दुनिया बदलेगी, उससे दिल्ली भी नहीं बदलेगी। कॉलोनी-मोहल्ला क्या आप और मैं भी नहीं बदलेंगे। अब ऐसी लेखनी वैसे भी लुप्तप्राय जीव है जिस तथ्य को स्वीकारते हुए भी मैं आगे लिखने से हिचकूंगा नहीं। तो मुहावरा पटनिया है -“फिर बैतलवा डाल पर” यानि विक्रम वैताल वाला वैताल फिर से पेड़ पर जाकर लटक गया है। और हमारा आज का प्रेत है दिल्ली का ट्रैफ़िक और जिसे कंधे पर लेकर निकलने की कोशिश में है ऑड-ईवन का प्रयोग।
जनवरी का महीना था, देश में दस सबसे प्रदूशित जगहों में पांच दिल्ली के हो रहे थे, दिल्ली की बदनामी दुनिया भर में नामी हो रही थी, हवा में ज़हर फैला था, लोग नाक-गले के इंफेक्शन से परेशान थे और किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था तो ऑड ईवन फ़ॉर्मूला लागू किया गया। सड़कों पर भीड़ कम हो गई, लोग ख़ुश हो गए, एक से एक बयान उछाले गए, हेडलाइन चमकने लगे, हम जैसे कुछ लोगों ने कुछेक ब्लॉग लिख डाले और धूमधाम से ऑड ईवन प्रयोग संपन्न हुआ। फिर प्रचार प्रसार का काम शुरू हुआ कि कितना सफल हुआ ये प्रयोग, कैसा मास्टरस्ट्रोक था, दिल्ली के लोग कितने जागरूक और नियम का पालन करने वाले वगैरह वगैरह। हालांकि हवा की क्वालिटी पर कितना प्रभाव पड़ा इस पर विद्वानों में विवाद है। कमसेकम अलग अलग रिपोर्ट यही कहते हैं। कुछेक रिपोर्ट कह रहे थे कि वो हवा की तेज़ी थी जिसने उस स्कीम के दौरान प्रदूषित हवा को धकेल दिया, किसी रिपोर्ट ने कहा कि प्रदूषण में धुंआधार कमी आई वहीं कुछ रिपोर्ट ने कहा कि पंद्रह फ़ीसदी बढ़ोत्तरी ही हुई । पता नहीं सर्वे का कौन सा वैज्ञानिक तरीका था कि लोगों का विज्ञान पर से भरोसा ही उठ जाए। लेकिन जिस मुद्दे पर कोई संशय नहीं था वो ये कि सड़कों की जनसंख्या पर असर ज़रूर पड़ा। गाड़ियां कम हुईं और लोगों को ट्रैफ़िक जाम से राहत मिली।
और अब फिर से शुरू हुआ है ऑड-ईवन। फ़र्क ये है कि इस बार स्कूल खुले हुए हैं। बाक़ी बंदिशें वैसी ही हैं, वीआईपी को छूट मिली हुई है, ईको-फ्रेंडली गाड़ियों, महिला ड्राइवरों को छूट मिली हुई है। सड़कों की बात करें तो भी स्थिति वैसी ही हैं। सड़कें ठसाठस भरी हैं, प्रदूषित जगहों की लिस्ट में दिल्ली के चार से पांच इलाक़े टॉप टेन में चल रहे हैं।गर्मी में लोग गर्म होना शुरू हो रहे हैं। ऐसे में पिछले कई दिनों से रेडियो टीवी पर धुंआधार प्रचार किया जा रहा है। जिसके साथ ही बयानबाज़ी और मीमांसा का दौर भी जारी है।
लेकिन मुझे फ़र्क ये लग रहा है कि पिछली बार स्कीम को लेकर आशंका थी, इस बार सवाल हैं। क्या कुछ नया नतीजा निकलेगा, ट्रैफ़िक कितना कम होगा या प्रदूषण में कितनी कमी होगी ? लेकिन उनसे भी अहम सवाल जो उठने चाहिए वो ये कि पिछली बार के वायदों का क्या हुआ ? जैसे ये कि चालान के पैसों से पैदल यात्रियों के लिए कुछ रास्ते बनाए गए कि नहीं ? साइकिल सवारों के लिए कुछ किया गया कि नहीं ? अलग लेन या कोई ख़ास इंफ्रास्ट्रक्चर शुरू हुआ या नहीं ? डीटीसी के बसों का बेड़ा तो बढ़ा नहीं, कितनी जल्दी बढ़ेगा इसका पता नहीं। चलिए वो सब तो वादे थे, सड़क को साफ़ करने का एक क़दम तो बीआरटी कॉरीडोर हटाना भी था, वहां तो कार्रवाई भी शुरू हो गई थी। अब तो चार महीने होने को आए, पता नहीं क्या वजह रही पर कल शाम भी मूलचंद चौराहे पर बीआरटी के कॉरीडोर के भुतहे बस स्टॉप खड़े दिखे थे। तो ट्रैफ़िक में गाड़ी दनदनाते वक़्त याद कीजिएगा पुराने वादों को भी,अगर याद आए तो लिस्ट भेजिएगा ट्विटर पर।
फिर ये भी सोचने की ज़रूरत है कि इस प्रयोग का मक़सद क्या है ? पहली बार तो प्रदूषण कम करना था या ट्रैफ़िक कम करना ? और इसका असल नतीजा क्या हुआ इस पर कोई भरोसमंद सर्वे क्यो नहीं दिखा ? क्या इस बार सरकार इसका ध्यान रख रही है ? जनवरी में प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक की श्रेणी में था, अभी बहुत ख़राब स्तर पर, यानि पहले से बेहतर। तो क्या अब ऑड ईवेन सिर्फ़ इसलिए लाया जा रहा है क्योंकि सड़कें ख़ाली होंगी ? लेकिन सवाल तो ये है कि पंद्रह दिन ट्रैफ़िक कम करके भी क्या होगी ? ये समाधान स्थाई कैसे हो सकते हैं ? तीस अप्रैल के बाद तो एक बार फिर से भीड़ वही हो जाएगी ? ट्रैफ़िक की समस्या किसी शुक्लपक्ष या कृष्णपक्ष की समस्या तो है नहीं, ऐसे में तो एक पखवाड़े नहीं पूरे साल की योजना लानी पड़ेगी। प्रयोग एक बार होते हैं, बार बार किया प्रयोग फ़ैसला होता है। और ये फ़ैसला शॉर्टटर्म लग रहा है। जब तक स्थाई समाधान नहीं किए जाएंगे तो फिर ऐसे प्रयोगों का क्या फ़ायदा होगा ? पब्लिक ट्रांसपोर्टेंशन में बेहतरी हुई नहीं, लगातार जाम लगने वाली जगहों की इंजीनियरिंग ठीक हुई नहीं, डीज़ल कारों पर अभी भी उहापोह जारी है, कंस्ट्रक्शन अभी भी बेलगाम जारी है। तो आंकड़ों के हिसाब से स्थिति लगभग वही है। तो ऐसे में क्या ऑड ईवन को इमर्जेंसी उपाय में नहीं रखना चाहिए। ये तो ऐसा हुआ कि अपनी मांगें मनवाने के लिए धरना प्रदर्शन छोड़ सीधे आमरण अनशन शुरू कर दिया जाए।
भले ही ट्रैफ़िक से कुंठित दिल्ली वालों को ख़ाली सड़कें सुहानी लगें, इसलिए ऑड ईवन अच्छा लगे। टैक्सी और ऑटोवालों की कमाई बढ़े, उन्हें ऑड ईवन अच्छा लगे, जर्मन लग्ज़री कार मालिकों को अच्छा लगे जो सस्ती कारों की भीड़ में अपनी कारों की टॉप स्पीड नहीं चेक कर पाते हैं। मुझे अच्छा लगे कि इसी बहाने मेरी बुलेट रवां रहे, बाकियों को अच्छा लग रहा है क्योंकि पहली नज़र में पर्यावरण के लिए अच्छा क़दम माना जाता है। फ्लेकिन ये इलाज शॉर्ट-टर्म है, मनोवैज्ञानिक है, कॉस्मेटिक है। अच्छी पॉलिटिक्स है। लेकिन इन सबसे प्रदूषण का प्रेत हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा।
तो भले ही फिलहाल चारों ओर स्कीम की जयजयकार हो रही हो लेकिन ये सोचने वाली बात है कि पिछले प्रयोग का ग़लत निष्कर्श तो नहीं निकाल लिया हमने ? और इसीलिए वादे के मुताबिक ख़त्म कर रहा हूं एक मल्टीपर्पस चुटकुले के साथ, जो यहां भी फ़िट हो सकता है। एक बार एक वैज्ञानिक मेंढक पर एक प्रयोग कर रहा था। मेंढक पर आवाज़ का क्या असर होता है ? इस प्रयोग के तहत वो मेंढक को ट्रे में रखता है, २०० डेसीबल (फॉर एग्ज़ाम्पल) की आवाज़ वाला भोंपू बजाता है, जिससे चौंक कर मेंढक कूदता है। मापा जाता है तो जंप दस फ़ुट की होती है।वैज्ञानिक लिखता है कि २०० डेसीबल पर दस फ़ीट की कूद। फिर वैज्ञानिक मेंढक का एक पांव काट देता है, फिर भोंपू बजाता है तो कूद सात फ़ुट की होती है, जिसे नोट किया जाता है, फिर एक और पांव और भोंपू, फिर एक और पांव। दूरी घटती जाती है पांच फीट और फिर ढाई फीट । आख़िर में चारों पांव काट दिए जाते हैं, इस बार मेंढक भोंपू की आवाज़ सुन कर हिलता भी नहीं है और फिर वैज्ञानिक अपने फ़ाइल में नोट करता है कि चारों पांव काटे जाने के बाद मेंढक बहरा हो गया।
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