हे प्रभु, बुलेट ट्रेन पर आशंका बढ़ती जा रही है…
भारत जैसे पाखंडी देश में किसी भी मुद्दे पर शोध करना, जानकारी इकट्ठा करना, संवाद करके, अलग-अलग विचारों को सुनना, अपनी धारणा बनाना किसी को भी फ़्रॉयड या चंकी पांडे बना सकता है। और इसी कठिन सफ़र पर मैं निकला था। अपनी राय बना रहा था। और वक़्त के साथ कैसे मेरी सोच में तब्दीलियां आती जा रही हैं आज वही आपके सामने रख रहा हूँ, बिना किसी दावे-बिना किसी ताने के, सिर्फ़ आग्रह* के साथ। (*आग्रह दरअसल एक दूरस्थ आध्यात्मिक सौरमंडल का गोला है जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह के बाद आता है)
वो आग्रह था बुलेट ट्रेन के लिए। नई सरकार ने बड़े तामझाम से इस योजना का ऐलान किया था। ऐसे क्रांतिकारी ऐलान पहले भी होते रहे हैं … हम मुंबई को मुंबई नहीं बना सकते, शंघाई बनाने की बात की। काशी को काशी नहीं रहने दे सकते लेकिन क्योटो बनाने पर अड़ गए। गुड़गाँव को पता नहीं क्या बनाना था और क्या बन गया, इस पर कोई नारा भी याद नहीं आ रहा। ख़ैर ये नारे मुझे एक ही बात की याद दिलाते हैं जो पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर काफ़ी इस्तेमाल होता रहा है, एहसास-ए-कमतरी। पर आगे बढ़ते हैं। प्रजातंत्र में अगर विरोध नहीं हो तो वो बीमारी का लक्षण है। तो बुलेट ट्रेन के मुद्दे पर भारी मतभेद और सवालों से ये तो साफ़ था कि प्रजातंत्र अलाइव एंड किकिंग है। कहा गया कि भारत में एक लाख करोड़ के बजट वाले बुलेट ट्रेन की आख़िर ज़रूरत क्या है, भारत जैसे देश के लिए, अर्थव्यवस्था के लिए । कहा गया कि आख़िर मुंबई और अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन लाने की ज़रूरत आख़िर क्या है, । सवा पांच सौ किलोमीटर के लिए एक लाख करोड़ का क्या तर्क है । जापान से कर्ज़ा लेकर इस विकसित रूट पर ये परियोजना क्यों हो ? पहले से कई ट्रेनें हैं। कई फ़्लाइट हैं। तो इन सब सवालों और तर्कों से परे मेरी समझ कुछ और थी बुलेट ट्रेनों के लिए।
मुझे ना तो देश के बहीखाता की पूरी जानकारी है, ना उस पर अभी मैं जाना चाहूँगा। कई जानकारों की तरह बुलेट ट्रेन की तुलना मैं देश के स्वास्थ बजट या शिक्षा बजट से नहीं करूँगा, या शिक्षा बजट से भी नहीं। ये भी नहीं कहूँगा कि देश में किसान मर रहे हैं, भुखमरी के आंकड़ों पर सरकार ने स्याही गिरा दी है। ये भी नहीं कि रेलवे ठीक से चल नहीं रहा तो इसका मतलब कि बुलेट ट्रेन नहीं चल सकते। इन सब सवालों के बावजूद, मंशा पर शंका के बावजूद मैंने ख़ुद को बुलेट ट्रेन के पक्ष में पाया था। मुझे ये लगा कि ग़रीबों का उत्थान और रेलवे का उत्थान साथ-साथ भी किया जा सकता है। नहीं तो सत्तर सालों में किसी एक ही हालत को बेहतर ज़रूर होती। फिर मुझे – जाओ पहले उसका-उसका साइन लो, वाला लॉजिक भी ठीक नहीं लगता। एक लाख करोड़ के बजट की तुलना केवल स्वास्थ बजट से क्यों करें। फिर तो स्वास्थ्य और शिक्षा बजट की तुलना सड़क दुर्घटनाओं की वजह से देश को हो रहे आर्थिक नुकसान से भी कर सकते हैं, जो एक अंदाज़े से कुल जीडीपी का तीन फ़ीसदी है, एक आंकड़े से लगभग चार लाख करोड़ रुपए का आता है। पर उस पर इस वेलफ़ेयर स्टेट का ध्यान नहीं जाता है। ना ही डेवलपमेंटल बुद्धिजीवियों का। तो ये तो एक पक्ष हुआ।
फिर ये भी बात है कि बुलेट ट्रेन को मैंने केवल तेज़ रफ़्तार ट्रेन नहीं माना। मेरे लिए वो टेक्नॉलजी का एक प्लैटफॉर्म है, जिसका असर दूसरी चीज़ों पर भी पड़ता है। जैसे मोटरस्पोर्ट्स में इस्तेमाल टेक्नॉलजी से हम आम गाड़ियों को ज़्यादा सुरक्षित बनते देखते हैं वैसे ही। मुझे लगा कि रेलवे में सुरक्षा के इंतज़ाम, इंफ़्रास्ट्रक्चर पर बुलेट ट्रेन का असर पड़ेगा। क्योंकि अभी जो हालत है उसमें बुलेट ट्रेन का चलना नामुमकिन है। इसे बदलना ही होगा। और मेरी उम्मीद रही कि इसी का असर मौजूदा रेल नेटवर्क पर पड़ेगा। दिल्ली मेट्रो का असर देश के कई शहरों के मेट्रो पर पड़ा है ये हम सब जानते हैं। और लगा कि मेट्रो की तरह ही ये बदलाव आम हिंदुस्तानियों की सुविधा के लिए होगा। पर अब भरोसा डोल रहा है।
शुरू में जब सुरेश प्रभु आए तो उनके फ़ैन्स ने ऐसा हल्ला किया कि लगा कि रेल हवाई जहाज़ हो जाएंगे। फिर सोशल मीडिया में तस्वीरें वाइरल होने लगीं कि फलां ने सुरेश प्रभु को ट्वीट कर दिया तो किसी के बच्चे को दूध मिल गया, किसी के बच्चे को डायपर। ऐसी ख़बरें चलने लगीं मानों पूरी रेलवे ट्विटर पर चलने लगी। जिसका अर्थ अगर आज देखें तो लगेगा कि आख़िर किस युग में हम जी रहे हैं जहां पर कर्तव्य भी मेरिट हो गया है। पिछली सरकारों ने इतना रद्दी काम किया था कि बच्चों को दूध पहुँचाना भी प्रशंसनीय काम हो गया है आज। और जिनके पास ट्विटर अकाउंट नहीं है उनका क्या ? आख़िर ये पूरा तंत्र किस तरफ़ और किसके लिए जा रहा है ?
हाल की कुछेक घटनाओं ने मेरे भरोसे को झकझोरा है। जैसे फ़्लेक्सी फ़ेयर किराए। आख़िर ये कौन सा गणतंत्र है जहाँ सरकार ही प्राइवेट कंपनी की तरह ज़रूरत के वक़्त आठ सौ के टिकट का दाम सैंतीस सौ रुपए वसूल रही हैं। और पांच गुना किराए के बाद क्या सुविधाएं भी पांच गुना हुई हैं ? मान लीजिए ७० साल कांग्रेस और जनता पार्टी ने देश का बंटाधार कर दिया है तो इसके लिए भरपाई ग़रीब ही क्यों दें। हर ट्रांज़िशन में ग़रीब ही क्यों लाइन में लगे। दरमियानी वक़्त में ग़रीब ही क्यों मरे ?
और जब आप इन घटनाओं को मनरेगा के लिए फंड में कटौती की ख़बर को देखें, स्मार्ट सिटी के तहत पहले से विकसित शहरों को स्मार्ट बनाने की पहल को देखें,
दुनिया में सबसे बड़े ट्रैक नेटवर्क में से एक है। रोज़ाना सवा दो करोड़ लोगों की सवारी। सालाना क़रीब २८ हज़ार मौत। अगर इन आंकड़ों को बिना रखे रेलवे का ज़िक्र करें तो शायद हम सबके मन में रेलवे की एक रोमांटिक छवि उभरेगी। यादगार सफ़र पर ले जाने वाला ट्रेन, अपने घर ले जाने वाली रेल। पर असलियत में वो रोमांस लगातार कम होता जा रहा है और उसकी जगह लेती जा रही हैं आशंकाएं। और आशंका ये है कि ग़रीबों के लिए बन रही योजना वाली किताब में ये ग़रीब फिर से आख़िरी पन्ने के फ़ुटनोट बने हैं।
भारतीय प्रजातंत्र की दुर्दशा का ठोस सबूत चाहिए तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट को देखना चाहिए। आख़िर वो कौन सा ग्लोबल सुपरपावर होगा जिसके नागरिक जानवरों से भी बुरी हालत में सफ़र करते हैं। विडंबना ये है कि इंसान जिस हालत में सफ़र करते हैं, वैसे जानवरों को भी नहीं ट्रांसपोर्ट कर सकते हैं, पुलिस पकड़ लेगी। मेनका गाँधी की कोशिशों ने जानवरों को तो इज़्ज़त दिलाई, इंसानों को नहीं दिलवा पाई। दिल्ली में डीटीसी की बसों को देखिए। मुंबई की लोकल में देखिए। क़स्बों में ट्रेकर, ट्रैक्स, विक्रम, ट्रैक्टर देखिए। हाईवे पर देखिए। जानवरों की तरह ठुंसे, कटने के लिए जा रहे मुर्गों की तरह लटके लोग कुछेक को संघर्ष की कहानी, रोमांटिक ग़रीबी या सर्वहारा की व्यथा कथा लग सकती है । मुझे ये एक फेल किया हुआ प्रजातंत्र लगता है।
Recent Comments