हिंसा का ऐसा जश्न क्यों ?
एक और घटना देखने को मिली है, फिर से सवाल वही सवाल सामने आ रहे हैं क्या इंसानियत मर गई, इतना क्रूर क्यों हो गए हैं हम। सोशल मीडिया पर शायद चर्चा भी हो, कि मनुष्यता फिर ख़तरे में है। अब इस बार हैदराबाद में तीन कुत्तों को गोली मार दिया किसी ने, जब तक पुलिस पहुँची ख़ून से लथपथ सिर्फ़ तीन मरे हुए कुत्ते मिले। मुझे लग रहा था कि चेन्नई वाली घटना के बाद यही घटना है। लेकिन ख़बर पढ़ी तो पता चला कि केवल हैदराबाद में ही हाल फिलहाल में जानवरों से ऐसी क्रूरता का ये चौथा मामला था। एक घटना हुई जहां लोगों ने एक कुत्ते पर एसिड फेंक दी, दो और कुत्ते को ज़हर खिलाकर मार दिया। इससे पहले कुछ लड़कों ने तीन छोटे पिल्लों को ज़िंदा जला दिया। उसे कैमरे पर रिकॉर्ड किया और फिर उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया।आख़िर क्या और क्यों हो रहा है ऐसा ? ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही होती दिख रही है।
इंसान तो क्रूर होता ही है लेकिन अब जो ट्रेंड देखने को मिल रहा है वो अलग है। वो है क्रूरता का जश्न। इस वीडियो बनाना और उन्हें अपलोड करना। वो भी गुमान के साथ। ये वीडियो अगर आपको चिंतित नहीं कर रहे तो साथ में बलात्कारों के वीडियो के बारे में भी एक बार सोच लीजिएगा।
यानि अब वो सवाल काफ़ी नहीं होगा कि क्या छत से कुत्ते को फेंकने वाला वो मेडिकल छात्र मानसिक रूप से बीमार था या घटना को अपने मोबाइल में शूट करने वाला और अपलोड करने वाला ? या वो शख़्स जो हैदराबाद में कुत्तों को एयरगन से मार देता है और वीडियो वायरल हो जाता है ? सवाल ये भी है कि ये घटनाएं हमारे समाज के बारे में क्या कुछ कह रही हैं ? सवाल ये होना चाहिए कि बेज़ुबानों पर ऐसी हिंसा को कहीं एक मौन स्वीकृति तो नहीं मिल रही ?
अपने एक सहयोगी आज़म सिद्दक़ी की से बातचीत को आपके साथ बांटना चाहूँगा, जानवरों की भलाई के लिए वो सालों से काम कर रहे हैं। उन्होंने ज़िक्र किया एक शोध के बारे में कि कई सीरियल किलर्स और साइकोपैथ के अपराधों की शुरूआत बचपन में बेज़ुबान जानवरों के साथ हिंसा करके ही होती है। अपने से कमज़ोर जानवरों को कष्ट देकर जब उसे हिंसा का चस्का लगता है, जो बाद में इंसानों की जान लेकर भी शांत नहीं होता है।
यही वजह है कि मैं ये लिख रहा हूँ। सवाल जानवरों पर हिंसा का नहीं है, सवाल हिंसा का है। चिंता उस प्रवृत्ति की है जो अपने से कमज़ोर पर की जाने वाली हिंसा को मौन स्वीकृति देती लग रही है। हाल में हमने आपने सुना ही होगा कि बलात्कार के भी वीडियो बाज़ार में बिक रहे हैं। ऐसा नहीं कि उन वीडियो को जो ख़रीद कर देख रहा है वो सब जाकर रेप करने लगें, लेकिन इस सबसे ये ख़तरा नहीं कि उनमें से ज़्यादातर बलात्कार को या बलात्कारियों को स्वीकारने लगेंगे ?
अब इस प्रवृत्ति को किसी बैन या चालान या मामूली सज़ा से ख़त्म तो किया नहीं जा सकता है। पचास रु के जुर्माने के साथ तो कभी नहीं। जीहां कुत्ते को मारकर सिर्फ़ पचास रु देकर छूटे हैं ये लोग। सिर्फ़ पचास रु।
इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए एक क़दम जो शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वो बुनियादी स्तर पर ही उठाना होगा। बच्चों के साथ। जिस मुद्दे पर आज़म की सलाह काम की लगी। वो सलाह थी बच्चों को ऐनिमल शेल्टर ले जाने की। जहां पर वो तमाम जानवर होते हैं जो इंसान की इंसानियत के शिकार होते हैं, जिन्हें देखकर, बेज़ुबानों के दुख को महसूस करके, बच्चा समझेगा कि इंसान में इंसानियत बाई-डीफ़ॉल्ट नहीं आती है, मनुष्य योनि में पैदा होने वाला हरेक एक इंसान नहीं बन जाता है, वो विकसित और पल्लवित की जाती है।
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