रोबोट से नहीं, मनुष्य से डर लगता है साहिब
दिन भर कॉल आते रहते हैं, अनवरत। शाम-रात में भी। शनिवार-रविवार को भी। मन आजिज हो जाता है। एक शख़्स का कई बार, कई लोगों का एक बार। दिन-रात। कॉल-महाकॉल।
रविवार के दोपहर ढाई-तीन बजे इंस्टाग्राम रील्स सरकाते हुए सोमवार का कैलेंडर सामने ससरने लगता है। और फ़ोन बंद करके आँख मूंदना चाहते हैं। एक झपकी लेने की ललक रहती है इससे पहले कि अगला हफ़्ता ये हफ़्ता बन जाए। तब भी कॉल आते हैं। नंबर देखकर मन पर भार हो जाता है। इतने सालों में नंबर ना सेव करने की आलसी आदत ने एक अजीब बलराज साहनी बन गया हूँ। खींच रहा हूँ रिक्शा। रिक्शे में दुकानदार बैठे रहते हैं। नहीं, दुकानदार नहीं। वो तो फिर भी अपनी गल्ले या गद्दी पर बैठकर आपका इंतज़ार करते हैं। आप दुकान पर ना जाएं तो कुछ नहीं कहते। ये रोबोट होते हैं।
वो कभी अकेले कभी झुंड में बेचने आते हैं। कोई होमलोन दे रहा है। कोई पर्सनल लोन। कोई मेरे लोन पर लोन देने आ रहा है और कई लोन पर मेरा लोन। कभी कभी वो धीमे से बेचना शुरू करते हैं। कभी छूटते ही टूट पड़ते हैं। वो बोलना शुरू करते हैं। उनके पास भी एक सीमित वोकैबुलरी है। लेकिन मशीनी अंदाज़ सटीक होता है। आवाज़ और अंदाज़ का टेम्प्लेट उन्नत है। वो बोलते हैं। सुनते नहीं हैं। कभी कभी सुनने के लिए एक आर्टिफ़िशियल पॉज़ देते हैं। मुझे लगता है मेरा जवाब या कुछ ना ख़रीदने की ज़िद या बेबसी के बारे में सुन रहे हैं, शायद सम्मान देते हुए संवाद की मर्यादा रख रहे हैं, लेकिन मेरे रुकते या आगे बढ़ने में झिझक देखते ही वो फिर से उसी निरपेक्षता और निश्चिंतता से अपनी बात दुहराते हैं। इस बात का इत्मिनान है उनकी आवाज़ में कि मैं ख़रीदूंगा ही। यही विश्वास और स्थितप्रज्ञता है उनमें कि फ़ोन काटे जाने के तुरंत बाद फिर से वो उसी लहजे और आत्मविश्वास के साथ नया कॉल शुरू करते हैं। मेरे फ़ोन काटे जाने से उनका अंह आहत नहीं होता। वो निर्विकार भाव से निराकार बाज़ारु यज्ञ में आहूति देते हैं। अहं-लेस रोबॉटिक भावलोक से कई बार ईर्ष्या भी होती है। मैं क्यों नहीं हो पाता ऐसा। क्यों तर्क-कुतर्क की साइकिल में फंसता हूँ। ट्रिगर-अलर्ट लिखे ट्वीट पर भी मैं ट्रिगर क्यों होता हूँ? क्यों नहीं बन जाता हूँ बॉट की तरह एक स्टोइक। मान-अपमान-अवमान-रिजेक्शन से ऊपर उठ चुका राजू गाईड। नहीं हो पाता। कोई ना कोई कुछ ना कुछ ऐसी ना ऐसी टिप्पणी कर ही देता है जिस पर मगज गरम हो ही जाता है। लगता है ज्ञान ठेल दिया जाए टाइमलाइन पर। हैशटैग दगच दिया जाए। पारा चढ़ जाता है। उनका नहीं चढ़ता। वो किसी को ज्ञान नहीं देना चाहते। ऐसा नहीं कि उनके पास ज्ञान नहीं। ऐसा भी नहीं कि उनके पास जानकारी नहीं। सब जानकारियां हैं। फ़ोन, पता, पासवर्ड, बैंक बैलेंस। उन्हें पता है कि मैंने कौन सी, कब गाड़ी ख़रीदी है। मैं पिछली बार बैंक कब गया था, कार्ड कब डिक्लाइन हुआ था और मैंने किसको कॉल करके यूपीआई करने को कहा था। उन्हें ये भी पता है कि रिलेशनशिप मैनेजर से मेरा रिलेशनशिप कैसा है। उन्हें पता है कि पिछले हफ़्ते में बेटे के लिए फाउंटेन-पेन ऑर्डर किया था और कुर्सी के पाए में लगाने के लिए चिप्पी भी। ये भी कि मेरे एक शॉपिंग कार्ट में गांधी की हत्या वाली किताब और रिसाइकिल सामान से बनी हवाई चप्पल है। सोचिए इतना कुछ पता होने पर भी कोई दंभ नहीं। ये बताने की हवस नहीं कि उन्हें कितना कुछ पता है। वो आपको डराना नहीं चाहते। आपको बदलना नहीं चाहते। आपको जज नहीं करते। आपके विचार, विश्वास, कुंठा या आपकी आस्था से उनको मतलब नहीं। वो सिर्फ़ बेचना चाहते हैं। बेचना आदर्श है और उसी पवित्र अनुष्ठान में वो अपना योगदान दे रहे हैं। कभी हिंदी में, कभी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में, कुछ कांफिडेंस से भरे अंग्रेज़ी में। वन कॉल एट अ टाइम के गुरुमंत्र के साथ बात करते जाते हैं आगे बढ़ते जाते हैं। बटन दबाने, कनेक्ट होने, फ़ोन कटने के चक्र से विदेह एल्गोरिदम के साथ।
वैसे एक पक्ष जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है वो है इन बॉट के निर्माताओं की क्रिएटिविटी। कॉल करने वालों के आवाज़ को इतना रीयल बनाया है मानो लाजपत या लक्ष्मी नगर या लोहिया नगर में बैठी विमला, विमल या रोज़ी फ़ोन कर रहे हैं। बिल्कुल इंसानों की तरह साउंड करते हैं। टीवी की भाषा में ऐंबिएंट नॉयज़, पीछे बैकग्राउंड आवाज़ भी असल लगती है। कुछ के बैकग्राउंड में हाहा-ठीठी चल रहा होता है। लगता है कि कुछ लोग कोने में लंचबॉक्स खोलकर खाने की तैयार कर रहे हैं। कुछ कॉल में गली में पीछे से धनिया टमाटर बेचने आए सब्ज़ीवाले की भी आवाज़ फ़ीड की जाती है। कुछ कॉल के बैकग्राउंड में तो बच्चे भी कुनमुना रहे होते हैं। उन कॉल्स को थोड़े ज़्यादा धीरज से सुनता हूँ।
#krantisambhav #blog
Recent Comments