दर्द-ए-दिल्ली: क्या ये दुस्साहस कर पाएंगे केजरीवाल ?
बिना किसी भूमिका के एक सवाल उछाल रहा हूं मैं दिल्ली के सीएम की तरफ़, वैसे उसमें एक चैलेंज का भी फ़्लेवर तो है। या कहें कि दोनों के बीच के भाव के साथ ये पूछ रहा हूं मैं केजरीवाल जी से कि ट्रैफ़िक दुरुस्त करने के लिए क्या वो दिल्लीवालों की चंगुल से फ़ुटपाथों को छुड़ाने का काम कर सकते हैं ? दिल्ली के कोने-कोने में लोग अपने-अपने घरों के सामने की फ़ुटपाथों पर ऐसे क़ब्ज़ा किए बैठे हैं मानो मानों एडविन लुटियन ने अपनी वसीयत में उनको पार्किंग स्पॉट दिया था। और इस सवाल से पहले मैं बता दूं कि कॉलनियों के अंदर पार्किंग की समस्या के बारे में बात नहीं करना चाहता हूं, वो तो अलग मुद्दा है, जिस पर बाद में चर्चा करूंगा। मैं कॉलनियों से बाहर की मेन रोड की बात कर रहा हूं। दिल्ली के हर इलाक़े में आपको यही बवाल देखने को मिलता है। जहां लोगों ने घर और अपनी दुकानों के सामने के फ़ुटपाथ और फिर सड़क को अपनी संपत्ति मान लिया है। घर हो या दुकान, अपनी कार पार्क करेंगे नहीं तो सामने ईंट लगाकर अपनी पार्किंग की रक्षा करेंगे। क्या घर या दुकान के सामने की सड़क भी रजिस्ट्री के में लिखित उन्हें मिल जाती है ? या फिर वो हिस्सा कार पार्किंग के लिए पुलिस ने दे दिया है ? फिर क्या कोई भी अपनी गाड़ी कहीं भी किसी के घर के सामने खड़ी कर सकता है , पुलिस चालान नहीं काटेगी ? क्या ये सब मास्टरप्लान में लिखा है? और अगर है कि तो फिर ट्रैफ़िक और प्रूदषण के बारे में सोचने की ज़रूरत क्या है ? ख़ाली रिंग रोड ख़ाली करवाइए, प्रदूषण से निजात पाइए ।
अब तक के मेरे सवालों को नहीं समझ पाए तो मैं बताता हूं कि मुझे इससे आपत्ति क्या है ? इस समस्या के आयाम क्या हैं ? हो ये रहा है कि गाड़ी अगर फ़ुटपाथ पर हो तो फिर पैदल यात्री सड़क पर होते हैं। और पैदल अगर सड़क पर होते हैं तो फिर एक तो ऐक्सिडेंट का ख़तरा बढ़ता है, अब उनकी जान की चिंता ना तो की जाती है और ना मैं दुहाई दूंगा बाक़ी प्रदूषण तो होता ही है इस सब से। औऱ ये मत सोचिए कि लंबी लंबी कारों वाली कॉलनी में ये हाल होता है, सैंट्रो से जैगुआर हर तरीक़े की कारों वाली कॉलनी में यही हाल है। अगर आप दिल्ली के नहीं हैं तो फिर कभी ग्रेटर कैलाश या डिफ़ेंस कॉलनी जैसे इलाक़ों में घूमिएगा। टहलने की कोशिश कीजिएगा। इन इलाक़ों में बड़ी बड़ी कोठियां होती हैं, चमकदार घरों के सामने फ़ुटपाथ कैसे आम रहें तो उन्हें भी आमतौर पर चमका कर रखते हैं। लेकिन पैदल लोगों के लिए नहीं, अपनी डिज़ाइनर कारों के लिए। चौड़ी सड़कों के किनारे लाइन से बनी रईसों कोठियां अगर कंगाल होती हैं तो एक बी चीज़ में और वो है पार्किंग । तो अपनी गाड़ियों के लिए ये फ़ुटपाथ पर क़ब्ज़ा करते हैं, पैदल लोगों को सड़कों पर धकेलते हैं। फिर वहां एक के बाद चमकती कार खड़ी की जाती हैं जिन्हें सुबह से शाम तक ड्राइवर और चमकाते रहते हैं। अगर इस बीच आपको निकलना पड़ता है नहीं तो सड़क पर ही उतरना पड़ता है, लेकिन सड़क भी तुरंत नहीं आएगी क्योंकि सड़क का भी एक लेन इन्हीं रईसों की रईसी में चला जाता है। सड़क किनारे उनकी सस्ती कारें पार्क होती हैं, जिनमें सब्ज़ी और दूध लाने के लिए नौकर-चाकर आते जाते हैं। यानि अगर चार लेन वाली सड़क है तो फिर कुल मिलाकर आने जाने के लिए एक एक लेन बचता है और वो भी लेन ऐसा जिसमें पैदल भी चलते हैं और गाड़ियां भी। ऐसे में सोचिए कि गाड़ियां या मोटरसाइकिलें इन सड़कों पर कैसे रेंगती हैं। लोग फिर भी इसमें जी रहे हैं, क्योंकि अब इसे सभी स्वीकार कर चुके हैं। लोग अब सवाल नहीं पूछते कि ये क्या असभ्यता है। एक जानकार ने यही कहा कि वो भी अपनी कारें घर के सामने नहीं, अंदर खड़ी करते थे, लेकिन फिर बगल के लोग उनके घर के सामने पार्क करने लगे, और आख़िर में वो भी घर के सामने जगह बचाने के लिए कार बाहर फ़ुटपाथ पर ही खड़ी करते हैं। तो ये अब मान्य हो गया है। दिल्ली के कल्चर का हिस्सा। और कभी अगर इन बड़ी कोठियों के बड़े दरवाज़े खुले मिल जाएं तो दिख जाता है कि जिस जगह पर कारों को पार्क होना चाहिए वहां कितना शानदार गार्डेन बना होता है, और दिल्ली शहर ये वो गार्डेन होते हैं जिन्हें देखकर मन गार्डेन गार्डेन नहीं होता है, दुख होता है और आश्चर्य होता है !
अब ये मत सोचिएगा कि मैं केवल हैव्स और हैव-नॉट वाला रोदन कर रहा हूं। ये समस्या इसलिए नहीं क्योंकि वो पैसेवाले हैं, ये इसलिए है क्योंकि इस अव्यवस्था को पाल पोस कर बड़ा किया गया है, लोकल नेताओं और म्युनिस्पैलिटी अधिकारियों के द्वारा, जिससे एक ऐसी व्यवस्था बन जाए जिसमें जिसका भी बस चल सके वो चला ले, बशर्ते जेबें गरम होती रहें। तो केवल कोठी वाले अमीर नहीं, छोटी दुकानों वाले मिडल क्लास दुकानदार भी पीछे नहीं इस क़ब्ज़े में। ये स्थिति हर किसी बाज़ार में आप देख सकते हैं दिल्ली में। लाजपत नगर चले जाइए, करोल बाग़ चले जाइए, सरोजिनी नगर के सरकारी कॉलनी और नौरोजी नगर के पास रिंग रोड के बीच सेकेंड हैंड कारों का बाज़ार ही देख लीजिए। जिनकी सभी कारें वहीं पार्क होती हैं। स्थानीय निवासियों ने कोशिश भी की थी सड़क ख़ाली करवाने की, लेकिन क्या कुछ हुआ वो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं।
तो सवाल यही उठ रहा था मेरे मन में कि कई पॉलिटिकल फ़्रंट पर साहस किया केजरीवाल ने, कई मामलों में दुस्साहस भी कह सकते हैं, लेकिन क्या दिल्ली की सड़कों को सुचारू करने के लिए ये दुस्साहस कर पाएंगे ? फिर ख़ाली चाय-समौसे-फल-सिगरेट बेचनेवाले दुकानदारों, रेहड़ीवालों को ही क्यों फटाक से उठा दिया जाता है, फ़ुटपाथ से? लेकिन वो तो छुटभैय्ये आइटम हैं ? नगर निगम वाले रेहड़ी वालों का ही सामान क्यों उठा ले जाते हैं रास्ते से ? कभी दम है तो रईसों की गाड़ियां ले जाएं ? कोठियों के सामने सिक्यूरिटी गार्ड के लिए बने बक्से के ले जाएं ? या बड़े बड़े जेनरेटर ले जाएं ? बड़े दुकानदारों के डिस्प्ले ले जाएं ? पार्क की हुई कारों को ले जाएं ? और इस दौरान आम आदमियों की, प्रदूषण और ट्रैफ़िक के लिए चिंतित मुख्यमंत्री फ़ुटपाथ के माफ़ियाओं और दबंगों को छूने का साहस दिखा पाएं ? ऑड इवन तो दस पंद्रह दिन के लिए ठीक है, बाक़ि ये दुस्साहस भी करके देखिए एक बार ?
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