खेल दिवस और गुरू द्रोणाचार्य पर मेरे मन की बात
कुछ वक़्त पहले जीके के एक कॉफ़ी शॉप में अचानक मुलाक़ात हुई उन ऐक्टर से जिन्होंने महाभारत में द्रोणाचार्य का किरदार निभाया था। लंबी प्रभावशाली क़द-काठी । और शायद मौसम ठंड का था, उन्होंने ओवरकोट भी पहनी हुई थी तो व्यक्तित्त्व और रौबीला सा लग रहा था। ख़ैर ऐसे शख़्स सामने आएं तो फिर मुँह से कौन सी बातें निकल सकती है, सोच ही सकते हैं आप। तो बुदबुदा दिया कि बचपन में देखे थे, अभी तक याद है आपका किरदार। क्या ज़ोरदार ट्रेनिंग दी आपने पांडवों को। आपकी पर्सनैलिटी काफ़ी ज़ोरदार है और मेरे बेलटेक टीवी का स्पीकर भी गनगना जाता था आपकी आवाज़ से वगैरग वगैरह। तो वो मुस्कुराते हुए मेरी इन तारीफ़ों को स्वीकार करते रहे जैसा शायद वो इतने सालों में पता नहीं कितनी बार किया होगा, मुझे ये महसूस कराते हुए कि मेरी की गई तारीफ़ें कितनी मौलिक हैं। आज वो इसलिए याद आए क्योंकि खेल दिवस के मौक़े पर द्रोणाचार्य पुरस्कार का ज़िक्र हुआ।
आज से कुछ वक़्त पहले तक द्रोणाचार्य के बारे में कुछ ज़्यादा ना सोचा था, सोचता भी क्या। बचपन में कई ऐसे द्रोण मिले कि ज़िदगी का कोण ही बिगाड़ दिया। ख़ासकर गणित और केमिस्ट्री की दो द्रोणनियां। ख़ैर इसके अलावा और कोई राय नहीं बनी थी। जो थी वो बीआर चोपड़ा वाली महाभारत की बदौलत थी, जिसने वो काम किया था जो बहुत से घरों में मुमकिन नहीं था, वो था घर के अंदर महाभारत रखना। हमारे घरों में कहा जाता था कि उससे परिवार में लड़ाई होती है। मानो लड़ाईयों के लिए किताबों की ज़रूरत पड़ती हो। तो ऐसे निषेध को कई नई किताबों ने आसानी से पार करने दिया। अंग्रेज़ी में लिखी कुछ किताबों ने उसे और सरल बनाया। हिंदी में भी कुछ किताबें थीं लेकिन वो ज़्यादा उपलब्ध नहीं रहीं। तो इन नई किताबों ने महाभारत को भी नए तरीक़े से इंटरप्रेट किया, किरदारों की नई व्याख्याएं की हैं। इनमें से बहुत काफ़ी दिलचस्प भी हैं और नई रौशनी में चीज़ों को देखने को प्रेरित भी करती हैं। जिनमें से एक द्रोणाचार्य भी थे। जिनमें से ज़्यादातर जानकारी तो थी ही लेकिन कभी सोचा नहीं। और अब लग रहा है कि कैसी विडंबना है कि देश में गुरुओं को सम्मानित करने के लिए जो पुरस्कार का नाम रखा गया वो द्रोणाचार्य के नाम पर ही पड़ा। वही द्रोणाचार्य जिन्होंने राजकुमारों के लिए अपने स्कूल में सूत पुत्र को एडमिशन नहीं दिया था। फिर द्रुपद से नफ़रत भी थी, जिसमें शिष्य को ही हिसाब चुकता करने की ज़िम्मेदारी दे दी। गुरु ने अपने शिष्यों को ही इस्तेमाल कर लिया। गुरुदक्षिणा के तौर पर द्रुपद को बंदी बनाने के लिए कहा। फिर द्रोण ही शायद ऐसे गुरु रहे जिनके सामने उनके शिष्यों में से एक अपनी पत्नी को जुए में दांव पर डाल देता है और दूसरा शिष्य उसी भाभी के चीरहरण में लग जाता है, गुरु मौन। और तो और ऐसे गुरु भी जिन्होंने गुरुदक्षिणा में एक शिष्य का अँगूठा ही ले लिया। वो शिष्य जिसको उन्होंने शिक्षा भी नहीं दी थी। वैसे महाभारत के साहित्य को देखिए और आज के वक़्त के हिसाब से व्याख्या करें तो लगेगा कि ये कथाएं आजके युग की थीं।
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